Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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जैन-ग्रन्थ-संग्रह।
२०७
सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूख सदा ही मो लागे। सद घेवर वावर, लाडू वहुधर, थार कनक भरतुमागें ॥ प्रभु०
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योक्ष द्रोगनाशाय नैवेद्य ॥५॥ अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख पावै । तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप संवारा, जस गावै ॥ प्रभु०॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीजिनेभ्योमोहान्धकारविनाशाय दीपं निर्वपामि ॥ ६॥ इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत है । कृष्णागरुधूपं, अमलअनूपं, सिद्धस्वरूपं, ध्यावत है । प्रभु अंतरयामी, त्रिभुवननामी, सब के स्वामी, दोपहरो । यह अरज सुनीजै, ढील न कीज, न्याय करीजै, दया धरो॥७॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेभ्योअष्टकर्मदहनाय धूपं० ॥ ७॥ सबतें जोरावर, अंतराय अरि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फलपुंज विविध भर,नयनमनोहर, श्रीजिनधरपद धारत हैं ॥प्र०
ॐ ह्रीं अष्टदशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्री. जिनेभ्योमोक्षफलप्राप्तये फलं० ॥ ८ ॥ आठौं सुखदानो, आठनिशानी, तुम ढिग आनी, बारन हो। दीनननिस्तारन,अधमउधारन, धानत.'तारन,कारन हो॥प्रमु०
ॐ हीं अष्टादशदाशरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवद्न्येऽनर्घपदप्राप्तयेभनिर्वपामीतिस्वाहा ॥६॥
प्रय जयमाला।
दोहा। गुण अनन्त को कहि सके, छियालीस जिनराय। प्रगट सुगुन गिनती कहूं, तुम ही होहु सहाय ॥ ५ ॥

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