Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 55
________________ जैन - ग्रन्थ-संग्रह | २५५ काट शिव गये तिन्हे सिर नाइये ॥ सेो थानिक मे पूजौ मन वच काय जू । पाप दूर हो जाय अचल पद पायजू ॥ ॐ हौं श्री अवचल कूटते श्री सुमति जिनेन्द्रादि मुनि एक कोड़ाकोड़ि चौरासी कोड़ि बहत्तर लाख इक्यासी हजार सात सै मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्ये अर्घं ||५|| भडिल्ल छन्द मोहन कूट महान परम सुंदर कहौ । पद्मप्रभु जिनराय जहां शिव पद लहौ || कोड़ि निन्यानवे लाख सतासी जानिये । सहस तेतालिस और मुनीश्वर मानिये । सप्त सैकड़ा सत्तर ऊपर बीस जू । मोक्ष गये मुनितिन को नमि नित शीश जू कहें जवाहरदास सुदोय कर जोरकै । अविनासी पद देउ कर्म न खायकें ॥ ॐ ह्रीं श्री मोहन कूटतें श्री पदुमप्रभु सुनि निन्यानवे क्रोडि सतासी लाख तेतालिस हजार सातसे संताउन मुनि निर्वाण पद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अघं ||६|| सोरठा - कूट प्रभात महान । सुंदर जन मणि मोहनौ । श्री सुपार्श्व भगवान, मुक्ति गये अघ नाश कर । कोड़ाकोड़ी उनंचास कोड़ि चौरासी जानिये | लाख बहत्तर जान सात सहस भरु सात सै | और कहे व्यालीस । जंह तें मुनि मुक्ति गये । तिनकों नम नित सीस दास जवाहर जोरकर ॥ ॐ ह्रीं प्रभात कूटतें श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्रादि मुनि उनंचास कोड़ाकोड़ी बहत्तर लाख सात हजार सातसै व्यालीस मुनि सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्ध ||७|| दोहा - पावन परम उतंग हैं। ललित कूट है नाम ॥ चंद्र प्रभु मुक्ते गये, वंदो आठौ जांम ॥ नवसै अरु वसु जानियो । चौरासो रिषि मान । क्रौड़ बहत्तर रिषि कहे । असी लाख परवान । सहस चौरासी पंच शत। पंचवन कहे मुनीश । वसु कर्मन कौ नाशकर । पायेो सुखको कंद ॥ ललित कूटते शिव गये । बंद सीस 1 । I I 4

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