Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 45
________________ - जैन-प्रन्थ-संग्रह। २०५ - जिनगेहतणा चरनन अपार । हम तुच्छवुद्धि किम लहत पार॥ जयदेव जिनेसुर जगत भूप । नमि नेम' मंगै निज देहरूपा२२॥ दोहा। तीनलोकमें सासते, श्रीजिनभवन विचार ॥ भनवचतन करिशुद्धता, पूजे अरघ उतार ॥ २३ ॥ ॐ ह्रीं त्रैलोक्यसम्बन्ध्यष्टकोटिपटपंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहलचतुःशतकाशीतिअकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्घ्य निर्वपामि ॥ २३ ॥ (यहां विसर्जन भी करना चाहिये। कवित्त । तिहुँ जगमीतर श्रीजिनमंदिर, बने अकोतम अति सुखदाय। नर सुर खग करि वंदनोक जे, तिनको भविजन पाठ कराय । धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय । चक्री सुर खग इंद्र होयके, करम नाश सिवपुर सुख थाया२४॥ ( इत्याशीर्वादाय पुप्पांजलि क्षिपेत् ।) देव पूजा। दोहा। प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुम्न मोह । तुम पद पूजा करत हूँ, हम करुना होहि ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरावतर । संवौषट् । * ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्री संवोपडिति देवोहदेशेन हवित्यागे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71