Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 36
________________ जैन-प्रन्थ-संग्रह। ॐ ह्रीं अष्टाइसम्यग्दर्शनाय फलं निर्वपामोति स्वाहा ॥८॥ जल गन्धाक्षत चार दीप धूप फल फूल चरु | सम्यकद०।। ॐ ह्रीं अष्टाइसम्यग्दर्शनाय अयं निर्वपामीतिः ॥ ९ ॥ जयमाला। दोहा-आप आप निहचे लखै, तत्त्वप्रीति व्योहार। रहितदोप पच्चीस है, सहित अष्ट गुन सार॥१॥ चौपाईमिश्रित गीता छंद। सम्यकदरसन रतन-गहीजै । जिन वचनमै सन्देह न कीजै । इहभव विभववाह दुखदांनीं । परभवभोग चहैं मत प्रानी॥ प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदेश ढकिये धरम डिगते को सुथिर कर हरखिये। चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना । गुन आठसों गुन आठ लाहकै, इहां फेर न आवना ॥३॥ ॐ ह्रीं अष्टाइसहितपश्चवींशतिदोषरहिताय सम्यग्द्शनाय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ ज्ञानपूजा। दोहा-पंचभेद जाके प्रगट, शेयप्रकाशन भान ॥ मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यकशान ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र अवतर अवतर। संवौषट् । ॐ हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्र तिष्ठ तिष्ठ । । ॐ हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञान अत्रममसनिहितं भव भव विषट। सोरठा। नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥१॥

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