Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 28
________________ १४६ जैन-ग्रन्थ-संग्रह। दोहा-तंदुल सालि सुगन्धि अति, परम अखंडित दीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन॥३॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ जे.विनयवंत सुमव्यउरअंबुजप्रकाशन भान हैं। जे एकमुखचारित्र भाषत, विजगमाहिं प्रधान हैं। लहि कुदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसी यचूं। भरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचू॥४॥ दोघां-विविधांति परिमल सुमन, भ्रभर जास आधीन । . तासो पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥४॥ - ॐहीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय: पुष्पं निर्व पामीति स्वाहा ॥४॥ भति सवल मदकंदर्प जाको, क्षुधा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़समान है। उत्तम छही रसयुक्त नित नैवेध करि घृतमें पचूं। अरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा र॥५॥ पोहा-नानाविधि संयुक्तरल, व्यंजन सरस नवीन । जासों पूजों परमपद, देवशाल गुरु तीन ॥५॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षधारोगविनाशाय च निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ जे त्रिगज उद्यम नाश कीने मोहतिमिर.महावली। तिहिकर्मघांती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली॥ इह भौति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खचूं। अरहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिरग्रंथ नितपूजा रचूं॥६॥ .

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