Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 23
________________ जैन - प्रन्थ संग्रह | नाना वस्त्राभूषण मैंने इस तन को पहराये । 3 ४ गंध सुगंन्धित अंतर लगाये, पटरस अशन कराये ॥ रात दिना में दास होयकर, सेव करी तन केरी । सो तन मेरे काम न भायो, भूल रहो निधि मेरी ॥१३॥ मृत्युराय को शरण पाय तन, नूतन ऐसा पांऊ । जामें सम्यक्रतन तीन लहि, आठो कर्म खपाऊ ॥ देखो तन सम और कृतघ्नो, नांहि सुना जग माँही । मृत्यु समय में वेही परिजन सबहा हैं दुखदाई ॥१४॥ यह सब मोह बढ़ावनहारे जियको दुरगति दाता । इनसे ममत निधारो जियरा, जो चाहे सुख साता ॥ मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती । समता धरकर मृत्यु करो तो, पावा संपति तेती ॥१५॥ चौ आराधन सहित प्राण तज तौ ये पदवी पावो । हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्युकल्पद्रुम सम नहि दाता, तीनों लोक मंझारे । ताक पाय कलेश करो, मत जन्म जवाहरहारे ॥ १६ ॥ इस तनमें क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरण हो है । तेज कांति वल नित्य घटत है, यालम अधिर सु कोहै ॥ पांचों इन्द्री शिथल भद्द तव, स्वास शुद्ध नहि श्रावै । तापर भी ममता नहिं छोड़े समता उर नहिं लावै ॥१७७ मृत्युराज उपकारी जिय को, तिनके तोहि छुड़ावे । नातर या नन बंदीग्रह में, पड़ा पड़ा विललावे ॥ पुद्गल के परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी । यही मूरती मैं अमूरती, ज्ञानजोति गुणवासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सव पुदुर्गल लारे । मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सेा भाव हमारे ॥

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