Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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३०
जैन-अन्य संग्रह।
तुमको विन जाने जो फलेश। पाये सो तुम जानत मिनेश। पशुनारकनर मुरगतिमझार भव घरघरमयो अनंतवाररण अव काललब्धि बलते दयाल । तुव दर्शन पाय भयो सुशाल मन शांतमयों मिटसकलदांचाख्योस्वातमरस दुखनिकंदर१५ तातें अब ऐसी करहु नाथ। विधुरै न कभी तुव चरण साथ.॥ तुन गुणगणको नहिं छेव देव । जगतारन को तुअबिरदुश्व १२० आतम के अहित विषय कषाय । इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूं आपमें आप लीन ! सॉकरों हाहुँ व्यों निजाधीन ॥१२॥ मेरे न चाह कुछ और ईशा रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश . . मुझ कारज के कारन सुभाप । शिव करहु हरहु मममोहतापा शशि शांतारन तपहरन हेत। स्वयमेव तथा तुंव कुशल देत॥ पीवत पियूषं ज्यों रोगंजाय । त्यों तुम अनुभव ते भवनसायरा त्रिभुवन तिहुंकाल मझार कोय । नहिंतुमविन निजसुखदायहाय मोउर यह निश्चय भयोआजादुख जलघिउतारन तुमिजिहाजधा
दोहा। . तुम गुण गणमणि गणपती, गणतन पाहि पार। दौल स्वल्पमति किमि कहै, नमू त्रियोग संहारा
' इति दौलतरान व स्तुति।
श्रीदर्शन पच्चीसी। तुम निरखत मुझको मिली मेरों संपति आज। कहा चक्रवति सम्पदा कहा स्वर्ग:साम्राज ॥१॥ तुम बंदत जिनदेवजी नित नव मंगल होय। विन कोटि तत्क्षण टरें लहहिं सुयश सव लोय २१

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