Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur
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जैन-अन्य संग्रह।
. . दौलतराम कृत-स्तुति । . .
दोहा। सकल-जय-बायक तदपि, निजानंद रखलीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, मरि रज रहस विहीन ।
पद्धरि छन्द। जय वीतराग विज्ञानपूर । जय मोह तिमिर को हरन सुरंग नपान अनंतानंतधार। गमुख बीरज मंडित अपार ॥१॥ जय परमयांति मुद्रासमेत । भविजनको निज मनुभूतिहत। भवि भागनवश जागेवशाय । तुम धुनिह सुनि विभुम नशाय २॥ तुम गुणचिंतत निजपर विवेक । प्रघटै विघटे मापद अनेक तुम जगभूषण दूषणवियुका सब महिमायुक विकल्पमुक ॥३॥ भविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूपं । परमात्म परमपावन मनूप ॥ शुभ अशुभविभावमभावकोना स्वाभाविकपरिणतिमयमशीन Me अष्टादशदोषविमुकधीर । सुचतुष्टयमय राजत गंभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत । नव केवललग्घिरमा धरंत ॥ तुम शासन लेय अमेय जीव । शिव गये जाहिजै हैं सदीव । भवसागर में दुबकारवारितारन को और न आप टारि॥ यहलखिनिजदुख गदहरण काज । तुमही निमित्तकारण इलाज। जानें, ताते मैं शरण आय! उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥ में प्रम्यो अपनपो विसरि आप। अपनाये विधिफल पुण्य पाप। निजको परको करता पिछान । परमें मनिष्टता इष्ट ठान ॥ बारुलित भयो अडानधारि।ज्यों मगमगतृष्णा जानि वारि॥ बापयति में मापो बिवार । फरहन मनुभयो स्वपदखाया

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