Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 20
________________ जैन ग्रन्थ-संग्रह | न याको, विरचन योग्य सही है । यह तन पाय महा तप कीजे: इस में सार यही है ॥ & ॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावें, बैरी है जग जीके । वे रस होय विपाक समय अति, सेवत लागे. बोके ॥ वज्र अग्नि विषधर से हैं वे, हैं अधिके दुःखदाई । धर्मरक्षको चार प्रबल अति दुर्गति पन्थ सहाई ॥ १० ॥ मोह उदययह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो जब कंचन माने ॥ ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर, मन वांछित जन पावे । तृष्णां नागिन त्यों त्यों. " " : के लहर लाभ विष लावे ॥ ११ ॥ . मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे । तोभी तनक भये ना पूरण, भोग मनोरथ मेरे ॥ राज समाज महा अघ कारण, वैर बढ़ावन हारा । वेश्या सम लक्ष्मी अति चंचल इसका कौन पत्यारा ॥१२ मोह महा रिपु वैर विचारे, जग जीव संकट डारे । घरकारागृह वनिता वेड़ी, परंजन हैं रखवारे ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण. तप, ये. जिय को हितकारी । ये ही सार असार और सव, यह चक्री जीय धारी ॥ १२ ॥ छोड़े चौदहरन गंवोनिधि, और छोड़े संग साथी । कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लव हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहुतेरो, जीर्ण सृणवत् त्यागी । नीति विचार नियोगी सुत को, राज्य दिया वह भागी ||१४|| होय निस्सल्य अनेक नृपति संग, भूषण वशन उतारे। श्रीगुरु चरण घरी जिन मुद्रा, पंच महा व्रत धारे ॥ धन्य यह समझ सुबुद्धि जगौत्तम, धन्य वीर्यः गुण घारी । ऐसी सम्पति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी ॥ १५ ॥ 1. परिग्रह पोठ उतार सब, लीनो चारित्र पंथ । निज स्वभाव में थिर भये, बज्रनाभि निग्रंथ ॥

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