Book Title: Jain Granth Sangraha
Author(s): Nandkishor Sandheliya
Publisher: Jain Granth Bhandar Jabalpur

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Page 18
________________ ४२. जैन - प्रन्थ-संग्रह . किये नाग नागिन अधः लोक स्वामी । हरो मान तू दैत्य को हो अकामी ॥ ६ ॥ तुम्ही कल्पवृक्ष तुही कामधेनुं । तुही दिव्य चिन्तामणी नाग एवं ॥ पशू नर्क के दुःख सेतू छुडावे ! महा स्वर्ग में मुक्ति में तू बसावे ॥ ७ ॥ करें लोह को हेम पाषाण नामी । रटे नाम से क्यों न हो मोक्षगामी ॥ करे सेव ताकी करे देव सेवा। सुने वयन सोही हे ज्ञान. मेवा ॥ ८ ॥ जपे जाप ताको नहीं पाप लागे । घरे ध्यानं ता के संवे दोष भाजे ॥ विना तोह नाने घरे भव घनेरेः । तुम्हारी कृपा से सरे काज मेरे ॥ ॥ दोहा - गणधर इन्द्र न कर सके तुम विनती भगवान । धानत प्रीतं निहार के कीजे आप समान ॥१० ॥ : वैराग्य भावना | | दोहा। बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमाहिं । त्यों चक्री सुख में मगन, धर्म विसारै · नाहिं | योगीरासा वा नरेन्द्र छन्द | : इस विधि राज्य करे नर नायक, मेोगे पुण्य विशाल | सुख सागर में मग्न निरन्तर जात न जाना काल ॥ एक दिवस शुभ कर्म योग से, क्षेमंकर मुनि बंदे । देखे श्री गुरु के पद पंकज, लोचन अलि आनंदे ॥ १ ॥ तीन प्रदक्षिणा दे शिर नायो, करें पूजा युति कीनी । साधु समीप विनंय 1

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