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जैन-प्रत्य-संग्रह।
पर बैठो चरणों में हग दीनी गुरु उपदेशो धर्मशिरोमणि, सुन राजा वैरागो। राज्य रमा पनतादिक जो रस, सो सर्प नीरस लागो ॥२॥ मुनि सूरज कथनी किरणाबलि, लगत मर्म बुधि भागो। भव तन भोग स्वरूप विचारो, परम धर्म अनुरागोया संसार महा वन भीतर, भर्मत छोरन माये । जन्मन मरन जरादों दाई, जीव महा दुख पावे ॥३॥ कंवई कि जाय नर्क पद भुजे, छेदन भेदन भारी।कवहूं कि पशु पर्याय धरे तहा, बध बन्धन भयकारी। सुरगति में परि सम्पति देखे, राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति भय, सर्व सुखी नहीं कोई ॥४॥ कोई इष्ट वियोगी बिलखे, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिदी दीखे, कोई तनका रोगी। किसही घर कलिहारी नारी, के बैरी सम भाई । किलही के दुख याहर दीखे, किसही उर दुचिताई ॥५॥ कोई पुत्र विना नित मूरै, 'होइमर तेव रोवें। खोटी संतति से दुःख उपजे, क्यों प्राणी सुख सोब। पुण्य उदय जिनके तिनको भी, नहीं सदा सुख साता। यह जग वास यथारय दोखे, सबही हैं दुःख घाता॥६॥जो संसार विर्षे सुख होतो, तीर्थंकर को त्यागें । काहे कों शिव साधन करते, संयम से अनुरागें । देह अपवान अधिर धिनावनी, इसमें सारन कोई । सागर के जल से शुचि कोजे, तोभी शुद्ध न हाई॥ ७॥ सप्त कुधातु भरी मल मूत्र से, चर्म लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जग में, और अंपावन को. है। नव मल द्वार श्रवै निशि पासर नाम लिये घिन आंवें। • व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां, कौन सुधी सुख पावे ॥ पोपत तो दुख दोष करे अति, सोपत सुख उपजावे। दुर्जन देह स्वभाव वराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ॥राचन योग्य स्वरूप