Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 9
________________ (78-79), गुरु के रूप में आचार्य (79-80), उपाध्याय और साधु की विशेषताएँ (80), आध्यात्मिक रूपान्तरण या आत्मजाग्रति (सम्यग्दर्शन) (80-81), सम्यक्त्व (आध्यात्मिक रूपान्तरण) के प्रकार और निम्न गुणस्थानों में गिरने की संभावना उदाहरणार्थ -(क) सासादन गुणस्थान और (ख) मिश्र गुणस्थान (81-83), आध्यात्मिक रूपान्तरण या आत्मजाग्रति (सम्यग्दर्शन ) के पश्चात् रहस्यवादी यात्रा के लिए आवश्यकताएँ (83-85), (3) शुद्धीकरण या (क) विरताविरत गुणस्थान (ख) प्रमत्तविरत गुणस्थान (85-86), मुनि की विशेषताएँ (87-88), स्वाध्याय के प्रकार (88), आगम चार अनुयोगों के रूप में (88-89), स्वाध्याय का महत्त्व (89-91), भक्ति का स्वरूप (92-94), भक्ति के प्रकार (94-96), भक्ति का महत्त्व (96), ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के रूप में सोलह प्रकार की भावनाएँ (97-99), उच्चारोहण से पूर्व की प्रक्रिया (99), (4) ज्योतिपूर्ण अवस्था या (क) सातिशय अप्रमत्त (ख) अपूर्वकरण (ग) अनिवृत्तिकरण (घ) सूक्ष्मसाम्पराय (ङ) उपशान्तकषाय और (च) क्षीणकषाय गुणस्थान (100-101), (5) ज्योतिपूर्ण अवस्था के पश्चात् अंधकार काल (101-103), (6) लोकातीत जीवन या (क) सयोगकेवली गुणस्थान और (ख) अयोगकेवली गुणस्थान (103-105), परमात्मा की धारणा (105-106), अरिहंत की विशेषताएँ (106109), 'पावन' श्रेणी के रूप में अरिहंत (109-110), (VIII) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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