Book Title: Jain Darshan me Shraddha Matigyan aur Kevalgyan ki Vibhavana
Author(s): Nagin J Shah
Publisher: Jagruti Dilip Sheth Dr

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Page 6
________________ प्रस्तावना भारतीय धर्म-दर्शनों का मुझे पहले से ही आकर्षण रहा है। उसमें उन के सिद्धान्तों को जानने समझने में और एक दूसरे पर डाले गये प्रभाव को निष्कर्ष के रूप में नीकालने में मुझे बड़ा आनन्द मिलता रहा है। एक दूसरे के चिन्तन का एक दूसरे ने दिए प्रतिभावों की परम्परा से एक दूसरे का जो विकास हुआ है उन्हें समझने के लिए मैंने जो प्रयास किया है उससे मुझे अमूल्य प्राप्तियाँ हुई हैं । दृष्टि के खुलने के लिए और समग्र का दर्शन करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक भी था। किसी एक परम्परा के मूल धर्मग्रन्थों या सिद्धान्तग्रन्थों के हार्द को समझने के लिए अन्य परम्पराओं के धर्मग्रन्थों एवं सिद्धान्तग्रन्थों का अध्ययन अनिवार्य है, इस बात को मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ। इसकी कुछ झांकी इन तीन व्याख्यानों में होगी। प्रथम व्याख्यान जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) की विभावना को प्रस्तुत करता है। श्रद्धा की जैन विभावना को समझने के लिए औपनिषदिक और बौद्ध परम्परा में श्रद्धा का जो ख्याल है उसे जानना कितना आवश्यक है इसका विस्तार से निदर्शन किया गया है। दूसरे व्याख्यान में जैन मत में मतिज्ञान का स्वरूप कैसा है और उसमें जैन प्रमाणशास्त्र निर्माण करने में जैन चिन्तकों ने कैसा प्रयास किया है उन्हें दिखा कर मतिज्ञान मूलतः औपनिषदिक और बौद्ध परम्परा में स्वीकृत दर्शन (श्रद्धा), श्रवण, मनन और निदिध्यासन इन चार आध्यात्मिक सोपानों में से तीसरा सोपान मनन ही है इसी बात की तर्कपुरस्सर स्थापना की है। तीसरे व्याख्यान का विषय केवलज्ञान है। केवलज्ञान यह रागरहित विशुद्धज्ञानमात्र ही है किन्तु उस पर जैनों ने सर्वज्ञत्व का आरोप कर कर्मसिद्धान्त के घातक आत्यन्तिक नियतिवाद का गर्भितरूप से स्वीकार कर लिया है इसी महत्त्वपूर्ण बात की प्रधानतः चर्चा की गई है। तथा सर्वज्ञत्व के स्वीकार में आने वाले दोषों का गहनता से सविस्तर विचार किया गया है। शेठ भोलाभाई जेशिंगभाई अध्ययन-संशोधन विद्याभवन की शेठ पोपटलाल हेमचन्द अध्यात्म व्याख्यानमाला में जनवरी 19-20-21, 2000 के दिन ये तीनों व्याख्यान देने का मुझे जो अवसर मिला उससे मुझे प्रसन्नता हुई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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