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इसीलिए जैन आचार्यों ने यह माना है कि विवेकात्मक - संज्ञा के द्वारा जीव अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।
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इस प्रकार, जैनदर्शन में संज्ञा के विवेकात्मक और वासनात्मक – दोनों पक्षों को स्वीकार करते हुए भी वासनाओं पर विवेक के द्वारा विजय की बात कही गई है। इस प्रकार, प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में संज्ञा शब्द के विविध अर्थों का स्पष्टीकरण करते हुए यह बताया गया है कि वासनात्मक - - संज्ञाओं पर विवेक या धर्म-संज्ञा के द्वारा विजय प्राप्त की जा सकती है ।
शोधप्रबंध के प्रथम अध्याय में हमने 'संज्ञा' शब्द के वासनात्मक और विवेकात्मक – इन दोनों पक्षों का निरूपण करके, फिर प्रत्येक संज्ञा के स्वरूप को समझाया है और उन संज्ञाओं पर कैसे विजय प्राप्त की जा सकती है, इसका भी निर्देश किया है।
इस प्रकार, प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के प्रथम अध्याय में संज्ञा के स्वरूप की और उस पर नियन्त्रण कैसे हो - इसकी सामान्य चर्चा की गई। दूसरे में आहार - संज्ञा, तीसरे में भय - संज्ञा, चौथे में मैथुन - संज्ञा, पांचवें में परिग्रह -संज्ञा, छठवें में क्रोध-संज्ञा, सातवें में मान- संज्ञा, आठवें में माया-संज्ञा, नौवें में लोभ-संज्ञा, दशवें में लोक और ओघ–संज्ञा, ग्यारहवें में सुख और दुःख - संज्ञा, बारहवें में धर्म-संज्ञा, तेरहवें में मोह, शोक और विचिकित्सा (जुगुप्सा ) - संज्ञा का विवेचन किया गया है।
प्रस्तुत शोधप्रबंध का चौदहवां अध्याय जैनधर्म की संज्ञा की अवधारणा और बौद्धधर्म की चैतसिकों की अवधारणा से तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करता है । पन्द्रहवें अध्याय में संज्ञा की जैनदर्शन की अवधारणा और मनोवैज्ञानिक मैकड्यूगल की मूलवृत्ति की अवधारणा का तुलनात्मक - विवेचन प्रस्तुत किया है और सोलहवें अध्याय में पूर्व अध्यायों की विषयवस्तु का उपसंहार किया गया है।
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