Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Pramuditashreeji
Publisher: Pramuditashreeji
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प्राप्त करें। इस प्रकार, प्रस्तुत शोध का प्रयोजन प्राणी की मूलभूत वृत्तियों के आधार पर उनके जीवन की सम्यक् दिशा का निर्धारण करना है ।
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प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में 'संज्ञा' विषय चुनने के पीछे मेरा उद्देश्य यही रहा था कि संज्ञाएं प्राणीय-व्यवहार की मूलभूत प्रेरकं - तत्त्व हैं । मेरी जानकारी के अनुसार, मात्र संक्षिप्त लेखादि के द्वारा अपने विचारों को व्यक्त किया है। जैनागमों में संज्ञाओं की विवेचना मिलती है, परन्तु प्रज्ञापना के अतिरिक्त ऐसा कोई भी ग्रन्थ देखने में नहीं आया, जिसमें विस्तृत रूप से संज्ञाओं की विवेचना की गई हो । प्रज्ञापना में भी मात्र दस संज्ञाओं और उनके अर्थ का संक्षिप्त विवेचन है । आधुनिक - मनोविज्ञान में मैकड्यूगल ने मूलवृत्ति के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया था । उन्होंने मूलवृत्तियों की संख्या चौदह मानी है- 1. भोजन ढूंढना, 2. भागना, 3. लड़ना, 4. उत्सुकता, 5. रचना, 6. संग्रह, 7. विकर्षण, 8. समर्पण, 9. काम, 10. वात्सल्य, 11. सामाजिकता, 12. आत्मप्रकाश, 13. विनीतता और 14. हंसना ।
मनोविज्ञान के अतिरिक्त बौद्धदर्शन में भी संज्ञाओं की चर्चा है, किन्तु वह चैतसिकों के रूप में मिलती है । बौद्धदर्शन में चैतसिक धर्म के बावन भेद किए हैं, जिनमें अकुशल चैतसिक और कुशल चैतसिकों की चर्चा है। जैनदर्शन में स्वीकृत लगभग सभी संज्ञाएं बौद्ध - दर्शन के अकुशल चैतसिकों के वर्गीकरण में आ जाती हैं। इतना ही नहीं, वरन् बौद्ध - दार्शनिक उनका काफी गहन विश्लेषण भी प्रस्तुत करते हैं, लेकिन मूलभूत धारणाओं के विषय में दोनों का दृष्टिकोण समान ही है । इस प्रकार प्रस्तुत शोधप्रबन्ध मैंने एक तुलनात्मक दृष्टि से भी विवेचन प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार मैंने यह देखा है कि जैनदर्शन के अनुसार संज्ञाएँ ( सण्णा) प्राणी - जीवन के वासनात्मक पक्ष को निर्देशित करती है, फिर भी यह आवश्यक माना गया है कि वासनाओं पर विवेक का अंकुश सदा बना रहे। यह सत्य है कि हमारे लौकिक-अस्तित्व में वासनाएँ रही हुई हैं । जब तक शरीर है, शारीरिक-धर्म रहेंगे, किन्तु इन पर विजय प्राप्त करना ही जैन - दार्शनिकों का मुख्य लक्ष्य रहा है। जैनदर्शन के अनुसार, वासना पर विवेक का अंकुश ही सही अर्थ में साधना है,
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