Book Title: Jain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan Author(s): Pramuditashreeji Publisher: PramuditashreejiPage 11
________________ इस प्रकार, प्रस्तुत शोध का प्रथम प्रयोजन यह बताना है कि मानव-जीवन के प्रेरक-तत्त्व कौन-कौन से हैं। भारतीय–चिन्तन में मनुष्य और पशु के व्यवहार की तुलना करते हुए कहा गया है कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन -ये चारों क्रियाएँ दोनों में समान रूप से पायी जाती हैं, परंतु मनुष्य की यह विशेषता है कि उसमें वासना एवं विवेक -दोनों के होते हुए भी उसके व्यवहार का नियंत्रण विवेक भी करता है, मात्र वासनाएँ नहीं, क्योंकि कहा गया है “विवेक से हीन मनुष्य पशु के समान है। अतः, यह समझना आवश्यक है कि मनुष्य विवेक-बुद्धि से किस प्रकार अपनी मूल प्रवृत्तियों को संयमित करके आत्मकल्याण के सोपान पर अपने कदमों को अग्रसर करे। प्रस्तुत शोध का दूसरा प्रयोजन यह बतलाना है कि संज्ञाएँ किस प्रकार से मानवीय व्यवहारों को प्रभावित करती है। संज्ञा से चालित होकर मनुष्य भव-भ्रमण को बढ़ाता है और कर्मों का बंध करता जाता है। कामना, इच्छा, आशा, अभिलाषा, वासना, तृष्णा, आसक्ति आदि को जनसाधारण छोड़. तो नहीं सकता, पर विवेकपूर्वक उन पर अंकुश तो लगा ही सकता है। क्षुधानिवृत्ति हेतु भोजन से विमुख तो नहीं हो सकते, किन्तु क्या खाना, कब खाना, कितना खाना -इसका विवेक तो रख सकते हैं। इच्छाओं पर इतना अंकुश लगाने के लिए प्रयत्न तो अवश्य किया जाना चाहिए, जिससे कर्मों का बंध कम हो और संतोषप्रद ढंग से जीवन का निर्वाह भी हो सके। प्रस्तुत शोधकार्य के तीसरे प्रयोजन में यह बताया है कि वर्तमान परिवेश में मानव स्वास्थ्य के प्रति जाग्रत हुआ है। साथ-ही-साथ वह मानसिक-शान्ति को भी प्राप्त करना चाहता है। आहार-संज्ञा पर विवेक रखने का अर्थ शरीर को स्वस्थ बनाना है, वहीं क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मानसिक आवेगों पर संयम रखकर मानसिक-शान्ति को प्राप्त किया जा सकता है। आज न केवल जनसाधारण, अपितु प्रबुद्धवर्ग भी भौतिक चकाचौंध के कारण यह निर्णय नहीं ले पाते कि वे अपने जीवन को किस प्रकार से संयमित करें और साथ ही मानसिक-शान्ति को किस प्रकार से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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