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2. दशविध वर्गीकरण
6. मान, 7. माया, 8 लोभ, 9. लोक और 10. ओघ ।
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3. षोडषविध वर्गीकरण
1. आहार, 2. भय, 3. मैथुन, 4. परिग्रह, 5. क्रोध, 6. मान, 7. माया, 8. लोभ, 9. लोक, 10 ओघ, 11 सुख 12 दुःख, 13. धर्म, 14. मोह, 15. शोक और 16. विचिकित्सा ।
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1. आहार, 2. भय, 3 मैथुन, 4 परिग्रह, 5. क्रोध,
प्रस्तुत शोधकार्य का प्रयोजन एवं महत्त्व
मनुष्य का व्यक्तित्व बहुआयामी है, उसमें इच्छा, आकांक्षा, कामना, भावना, तृष्णा, वासना, विवेक आदि अनेक पक्ष रहे हुए हैं। मानव - व्यक्तित्व को समझने के लिए इन सभी तत्त्वों को जानना आवश्यक है । प्राणीय-जीवन या मानव-व्यक्तित्व के इन सभी पक्षों को समाहित करने के लिए जैनदर्शन में संज्ञा की अवधारणा प्रस्तुत की गई है। वासना और विवेक मानव-जीवन के अनिवार्य अंग हैं । जैनदर्शन में इन दोनों पक्षों को संज्ञा शब्द में समाहित किया है। आधुनिक मनोविज्ञान इन्हें मूलप्रवृत्तियों के रूप में मानता है ।
'बृहदारण्यकोपनिषद्' में कहा गया है कि 'यह पुरुष कामनामय है', जैसी उसकी कामना होगी, वैसा ही उसका चरित्र और व्यक्तित्व होगा। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि संज्ञा व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक निर्धारक - तत्त्व है। व्यक्तित्व के समग्र अध्ययन के लिए संज्ञाओं और उनके पारस्परिक संबंधों एवं प्रभावों को जानना आवश्यक है, क्योंकि वे ही हमारे सारे बाह्य और आभ्यन्तर - व्यवहार को नियंत्रित करती हैं। संज्ञाओं अर्थात् मूलवृत्तियों {Instinct } या व्यवहार के प्रेरक - तत्त्वों को जाने बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्यक् मूल्यांकन नहीं हो सकता, अतः व्यक्तित्व के सम्यक् अध्ययन के लिए संज्ञा की अवधारणा का अध्ययन आवश्यक है, क्योंकि इन संज्ञाओं के स्वरूप को समझकर ही हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि किन परिस्थितियों में व्यक्ति किस प्रकार का व्यवहार करेगा । संज्ञाएँ व्यवहार की प्रेरक हैं- प्रेरकों के अध्ययन के बिना व्यवहार का अध्ययन सम्भव नहीं है ।
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