Book Title: Jain Darshan ke Maulik Tattva
Author(s): Nathmalmuni, Chhaganlal Shastri
Publisher: Motilal Bengani Charitable Trust Calcutta

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Page 13
________________ जैन दर्शन के मौलिक तत्व .. ३ एक विचार पा रहा है दर्शन को यदि उपयोगी बनना हो तो उसे वस्तुक्तों को खोजने की अपेक्षा उनके प्रयोजन अथवा मूल्य को खोजना चाहिए। भारतीय दर्शन इन दोनों शाखाओं को छूता रहा है। उसने जैसे अस्तित्व-विषयक समस्या पर विचार किया है, वैसे ही अस्तित्व से सम्बन्ध रखने वाली मूल्पों की समस्या पर भी विचार किया है। शेय हेय और उपादेय का शान उसी का फल है। मूल्यनिर्णय की दृष्टियां मूल्य-निर्णय की तीन दृष्टियां हैं:(१) सैद्धान्तिक या बौद्धिक। (२) व्यावहारिक या नैतिक । (३) आध्यात्मिक, धार्मिक या पारमार्थिक । वस्तुमात्र शंय है और अस्तित्व की दृष्टि से शेयमात्र सत्य है । सत्य का मूल्य सैद्धान्तिक होता है । यह आत्मानुभूति से परे नहीं होता। आत्म-विकास शिव है, यह आध्यात्मिक मूल्य है। पौद्गलिक साज-सजा सौन्दर्य है, यह व्यावहारिक मूल्य है। एक व्यक्ति सुन्दर नहीं होता किन्तु श्रात्म-विकास होने के कारण वह शिव होता है। जो शिव नहीं होता, वह सुन्दर हो सकता है। मूल्य निर्णय की तीन दृष्टियां स्थूल नियम हैं। व्यापक दृष्टि से व्यक्तियों की जितनी अपेक्षाएं होती हैं, उतनी ही मूल्यांकन की दृष्टियां हैं। कहा भी है "न रम्यं नारम्यं प्रकृतिगुणतो वस्तु किमपि, प्रियत्वं वस्तूनां भवति च खलु ग्राहकवशात् ।" प्रियत्व और अप्रियत्व ग्राहक की इच्छा के अधीन है, बस्तु में नहीं। निश्चय-दृष्टि से न कोई वस्तु इष्ट है और न कोई अनिष्ट । "तानेवार्थान् द्विषतः, तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्टं, न विद्यते किंचिदिष्टं वा।" एक व्यक्ति एक समय जिस वस्तु से द्वेष करता है, वही दूसरे समय उसी में लीन हो जाता है, इसलिए इष्ट-अनिष्ट किसे माना जाए ! व्यवहार की दृष्टि में भोग-विलास जीवन का मूल्य है। अध्यात्म की

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