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औरत, घोड़ा, गाय, कबूतर, मेढक, मछली, साँप, मोर, कुत्ता, बिल्ली, हिरन और सिंह आदि।
संसारी जीवों के स्थावर और त्रस के नाम से भी दो भेद किये हैं। जैन-धर्म में हरेक चीज का वर्णन बहुत विस्तार के साथ, कई-कई तरह के भेद बता-बता कर किया गया है। ऊपर जो संसारी जीवों की पाँच प्रकार की जातियाँ बताई गई हैं, संक्षेप में, ये पाँचों जातियों स्वर और वस के भेर में समा जाती हैं।
इन पाँचों जातियों में से पहले नम्बर के एकेन्द्रिय जाति के जीव स्थावर कहलाते हैं। पृथ्वीकार कच्ची मिट्टी, अप्काय-कुएँ आदि का पानी, तेजस्काय = जलती आग, वायुकाय-ठण्डी हवा और वनस्पतिकाय-हरे वृक्ष, से सब स्थावर जीव अपने-आप चल-फिर नहीं सकते, इधर-उधर आ-जा नहीं सकते। इनमें चेतना-शक्ति बहुत थोड़ी होती है।
स्थावर से बिल्कुल उल्टे त्रस होते हैं। बस जीव अपने संकल्प के अनुसार चल-फिर सकते हैं, इधर-उधर आ-जा सकते हैं, इनमें स्थावरों की अपेक्षा चेतना-शक्ति अधिक होती है। स्थावरों में संकल्प-शक्ति नहीं है, किन्तु स में है। बस अपने भले-बुरे का विचार करते हैं। दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव
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