Book Title: Jain Bal Shiksha
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 65
________________ ( 60 ) के समान हैं। मुझे अब विवाह करना ही नहीं है। मैं तो श्री नेमिकुमार भगवान् के संघ में दीक्षा धारणकर साध्वी बनूँगी, उन्हीं के चरण-चिह्नों पर चलूँगी।" भगवान् नेमिनाथ जी के दर्शन करने के लिए राजुल गिरनार पर्वत पर जा रही थी। मार्ग में बड़े जोर से वर्षा होने लगी। राजुल वर्षा से बचने के लिए भीगती हुई, पास ही की एक गुफा में पहुँच गई। वहाँ श्री नेमिनाथ जी के भाई रथनेमिमुनि ध्यान लगाकर खड़े हुए थे । राजुल के रूप को देखकर वे मोहित हो गए और उसे वापस घर चलकर अपने साथ विवाह कर लेने के लिए कहा। राजीमती ने बड़े गम्भीर विचारों के द्वारा रथनेमि को समझाया और कहा--"यह तुम क्या कह रहे हो ? संसार के भोग-विलासों को त्यागकर मुनि बने हो और फिर उन्हीं वमन किये हुए भोगों को ग्रहण करना चाहते हो ? इस पतित जीवन से तो मर जाना कहीं अच्छा है। मुझसे इस बात की आशा न रखो। तुम तो क्या, स्वयं इन्द्र भी आकर प्रार्थना करे, तो मैं उसे भी घृणा - पूर्वक ठुकरा दूँगी।" राजीमती के प्रवचन का रथनेमि पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वह अपनी दुर्बलता पर पछताने लगा । वह जिस संयम मार्ग से भ्रष्ट हो रहा था, पुनः उस पर दृढ़ता के साथ आरूढ़ हो गया । राजीमती को धन्य है कि वह स्वयं तो दृढ़ रही ही, साथ ही डिगते हुए रथनेमि को भी धर्म में स्थिर कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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