Book Title: Jain Bal Shiksha
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बाल-शिक्षा (भाग 4 UATILITA उपाध्याय अमर मुनि lain Education Internativa सन्मात नानपीठा For Private & Penal Use Only www.iainelibrary SSC- Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति साहित्य रत्नमाला पाँचवाँ रत्न जैन बाल-शिक्षा (चौथा भाग) उपाध्याय अमरमुनि पन्मति ज्ञानपीठ, लोहामण्डी आगरा-282002 ___ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : जैन बाल शिक्षा (चौथा भाग) लेखक : उपाध्याय अमर मुनि बारहवाँ संस्करण : 2002 मूल्य : 6.00 रुपये प्रकाशक : सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी, आगरा-282002 मुद्रक रवि ऑफसैट प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स (प्रा.) लि 5/169/1 लताकुंज, आगरा-मथुरा रोड, आगरा-2 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की ओर से जैन बाल शिक्षा का यह चौथा भाग पाठकों के हाथों में पहुँचाते हुए हमें अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। । जैन विद्यालयों में बालकों को धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा देने वाली पुस्तकों की माँग बहुत दिनों से चल रही थी। __श्रद्धेय श्री उपाध्यायजी ने नवीन बाल-मनोविज्ञान की पद्धति के अनुसार विशुद्ध असाम्प्रदायिक धरातल पर जैन-बाल-शिक्षा (चार भाग) का प्रणयन करके जहाँ इस बड़ी कमी को दूर किया है, वहाँ जैन-जैनेतर विद्यार्थियों पर बहुत बड़ा उपकार भी किया है। संक्षेप में, सरल तथा सरस ढंग से धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा की संयोजना इस पुस्तक में की गई है, वह सर्वत्र आदर के योग्य होगी। बस, इसी विश्वास के साथ मन्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ बारहवें संस्करण के बारे में जैन-बाल-शिक्षा (चारों भाग) जैन-विद्यालयों में जिस रुचि एवं आदर के साथ अपनायी जा रही है, उसे देखकर हमें अत्यन्त प्रसन्नता है। महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, देहली, पंजाब, हरियाणा तथा जम्मू-काश्मीर आदि प्रान्तों के जैन विद्यालयों में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षण के लिए यह अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। यही कारण है| कि इसकी माँग निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। चतुर्थ भाग का यह बारहवाँ संस्करण इसी बात का प्रमाण है। आशा है, इससे अन्य विद्यालयों के व्यवस्थापक एवं अध्यापक गण भी प्रेरणा लेकर इसे अपने विद्यालयों के पाठ्यक्रम में स्थान देंगे। मन्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (विषय-सूची) - पृष्ठांक (कविता) (कविता) 15 (कविता) 18 20 (कविता) 23 25 क्रमांक 1. विनय 2. जीवों के भेद 3. मंगल-आचार 4. पढ़ना क्यों चाहिए ? 5. जीवों की पाँच जाति 6. भगवान् पार्श्वनाथ 7 देश में ऐसी नारी हों 8. चार गति 9. प्रयाण-गीत 10. अहंकार पर विजय 11. अच्छे काम 12. शिक्षा का उद्देश्य 13. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (1) 14. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य (2) 15. माता-पिता की सेवा 16. अहिंसा 17. चन्दनबाला 18. नव-तत्त्व 19. कालकाचार्य 20. भारतवर्ष 21. एक उदार जैन महिला 22. नेमिनाथ और राजुल 23. भगवान् का भजन 3.3 (कविता) 42 46 49 (कविता) 52 54 58 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक 2 11 15 18 2 0 0 0 0 * £ £ ☹ www ~ N N N 6 8 20 23 25 28 33 36 39 41 42 46 49 52 54 58 62 वन्दना जय जय सन्मति, वीर हितंकर ! जय जय वीतराग, जय शंकर ! Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 दयामय ! ऐसी मति हो जाय । कल्याण-कामना, त्रिभुवन की दिन-दिन बढ़ती औरों के सुख को सुख समझें, सुख का करें उपाय। अपने दुःख सब सहें, किन्तु परदुःख नहीं देखा जाय ।। भूला-भटका उल्टी मति का, जो है उसे सुझाएँ सच्चा जाग।। जन-समुदाय | सत्पथ, निज सर्वस्व सत्य धर्म हो, सत्य कर्म हो, सत्य ध्येय सत्य - साधना में ही जीवन अब 2 लगाय ॥ बन 'प्रेमी', लग जाय। जाय ॥ विनय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवों के भेद तुम यह तो जानते ही हो कि जीव किसे कहते हैं, जीव का क्या लक्षण है? अगर यह याद न हो तो सुनो “जिसमें जान हो, जानने और समझने की ताकत हो, जिसे सख-द:ख का अनुभव होता हो. वह जीव कहलाता है।" अच्छा, अब तुम्हें यह बतायेंगे कि जीव कितने हैं ? भगवान् महावीर ने कहा है कि- “जीव अनन्त हैं।' अनन्त का अर्थ है- “जिसका अन्त न हो, जिसकी गिनती न हो सके।" जीव अनन्त हैं, परन्तु वे दो भागों में बाँटे जा सकते हैं- एक मुक्त, और दूसरे संसारी। ये जीवों के दो प्रकार हैं, दो भेद हैं। 1.मुक्त जीव मुक्त जीव उन्हें कहते हैं, जो संसार से छूट गये हैं, मोक्ष में पहुँच गये हैं, जो फिर कभी संसार में नहीं आते हैं, जन्म-मरण नहीं करते हैं, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) जिनको एक भी कर्म का बन्धन नहीं है, तो सब प्रकार से सदा के लिए शुद्ध हो गये हैं। मुक्त जीवों का न शरीर होता है, और न कोई रूप-रंग होता है। भूख-प्यास, रोग-शोक आदि कोई भी, किसी भी तरह का दुःख वहाँ कभी नहीं होता। मोक्ष में आत्मा केवल शुद्ध आत्मा ही रहता है। मुक्त जीव कौन होते हैं ?-इस कथन का उत्तर भी तुम्हें बता दूँ। भगवान् ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकर मुक्त जीव हैं। अब वे जन्म-मरण के बन्धन से सदा के लिए छूट गये हैं। पुराने काल में रामचन्द्रजी, हनुमानजी, गौतम स्वामी तथा जम्बू स्वामी आदि भी मोक्ष पाकर मुक्त जीव हो गये हैं। 2.संसारी जीव अब रहे दूसरी तरह के संसारी जीव। संसारी जीव वे हैं जो कर्म के बन्धनों से बँधे हुए हैं, जो संसार में जन्म-मरण करते हैं। संसारी जीव मुक्त जीवों से बिल्कुल उल्टी तरह के हैं। मुक्त जीव शुद्ध हैं, तो संसारी जीव अशुद्ध। मुक्त जीव शरीर से और रोग-शोक आदि दुःखों से बिल्कुल रहित हैं, तो संसारी जीव शरीर वाले हैं और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) रोग-शोक आदि दुःखों से घिरे हुए हैं। संसारी का मतलब है, संसार में बँधा रहने वाला प्राणी। संसारी जीव कौन होते हैं ? - इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें समझा दूँ। इस संसार में जो भी गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट आदि पशु हैं, सब संसारी जीव कहलाते हैं। आकाश में उड़ने वाले हंस, तोता और कोयल आदि जितने भी पक्षी हैं, सब संसारी जीव हैं। और तो क्या, आग, जल, हवा, वृक्ष, कीड़ा-मकोड़ा, मक्खी, मच्छर, देवता, नारकी, और मनुष्य आदि सब संसारी जीव हैं। केन्द्रिय जीव से लेकर पचेन्द्रिय जीवों तक सब संसारी जीव हैं। अभ्यास 1. जावों के कितने भेद हैं ? 2. मुक्त जीव किसे कहते हैं ? 3. संसारी जीव का क्या लक्षण है ? 4. संसारी जीव कौन-कौन-से हैं ? 5. मनुष्य और पशु आदि संसारी हैं या मुक्त ? Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 1. पूज्य जनों की सेवा करना, लघु जन से करना, नित प्यार ! 2. माता-पिता का आदर करना, रखना सब विधि शिष्टाचार ! नीच जनों के संग न रहना, है यह उत्तम मंगलाचार !! मंगल - आचार 3. दान-धर्म के प्रेमी बनना, रखना हर दम चित्त उदार चरणों में नित वन्दन करना, है यह उत्तम मंगलाचार !! दीन-दुःखी की पीड़ा हरना, है यह उत्तम मंगलाचार !! Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 7 ) 4. मन, वाणी, तन को शुभ रखना, रखना सब सुन्दर व्यवहार ! 3 5. क्षमाशील मितभाषी बनना, वाणी में मधु का संचार ! लक्ष्य एक जिन-पद का रखना, है यह उत्तम मंगलाचार !! 7. सीधा-सादा 6. सब जीवों पर निशिदिन करना अपनी ममता का विस्तार कडुवा बोल कभी मत कहना, है यह उत्तम मंगलाचार !! सत्य, शील पर अविचल रहना, है यह उत्तम मंगलाचार ! रहन-सहन हो, हो न कहीं भी जरा विकार ! रहे सदा जाग्रत मानवता, है यह उत्तम मंगलाचार !! Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढ़ना क्यों चाहिए ? ___आज मैं तुम्हें एक बहुत सुन्दर बात बताता हूँ। तुम अभी बच्चे हो, अपने हित और अहित की बात अच्छी तरह नहीं समझ सकते हो। पर सदा बच्चे ही तो नहीं रहोगे। तुम्हें अपने भविष्य को शानदार तथा सुखमय बनाने के लिए अभी से प्रयत्न करना चाहिए, अगर अभी से तुमने इस ओर ध्यान न दिया, तो तुम्हें आगे चलकर पछताना पड़ेगा। ___हाँ, तो अपने भविष्य को शानदार तथा सुखमय बनाने का क्या साधन है ? वह साधन और कुछ नहीं, अध्ययन है, पढ़ना है। भविष्य में यह व्यर्थ का लड़ना-झगड़ना, खाना-पीना, सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, कुछ काम नहीं आयेंगे। भविष्य में तुम्हें कैसे सुख मिल सकेगा ? कैसे तुम्हें सम्मान मिल सकेगा ? उनका एक ही उपाय है—मन लगाकर अध्ययन कर लोगे, केवल वही काम आयेगा। न तब ये खेल-कूद, तमाशे काम आयेंगे, न सिनेमा और न दूसरी चीजें। तुम अभी पढ़ने का मूल्य नहीं समझते, इसलिए तुम्हारा पढ़ने को जी नहीं चाहता। परन्तु, जब तुम पढ़ने का मूल्य समझोगे, तब तुम्हें Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा जान पड़ेगा कि पढ़ने में सुस्ती करके, हमने भारी भूल की है। जो बच्चे अब नहीं पढ़ते हैं वे आगे बड़े होने पर पछताया करते हैं। शिक्षा का स्थान, संसार के सब पदार्थों में उत्तम और श्रेष्ठ स्थान है। विद्या-धन का कभी नाश नहीं होता। दूसरों को देने से यह घटती नहीं, वरन् बढ़ती ही जाती है। विद्या वह गुप्त धन है, जिसे न चोर चुरा सकता है और न राजा छीन सकता है। विद्या से हीन मनुष्य की गिनती पशुओं में की जाती है। जिस घर में विद्या का निवास है, उस घर में सदा सुख शान्ति, सदाचार और धन-धान्य का निवास है। जहाँ इसका प्रकाश नहीं है, वहाँ सदा कलह, वैर और विरोध आदि दुर्गुणों का ही डेरा जमा रहता है। भगवान् महावीर ने भी मानव-जीवन में ज्ञान को ही पहला स्थान दिया है। जैन-धर्म मानता है—बिना ज्ञान के शान्ति नहीं। यह याद रखो कि जो बालक पढ़ा-लिखा नहीं है, वह भले ही रूपवान हो, गहनों से लदा रहता हो, परन्तु अनपढ़ होने के कारण कभी भी आदर नहीं पाता। उसका सभी जगह तिरस्कार और उपहास ही होता है। विद्या पढ़ने की यही अवस्था है। अगर अभी आलस्य करोगे, तो आगे उसका फल अच्छा नहीं रहेगा। अभी बचपन में तुम पर कोई घर के काम-काज की फिकर नहीं है, तुम्हारा मन भी साफ है, परिश्रम भी अच्छा कर सकते हो। आगे ज्यों-ज्यों आयु बड़ी होती जायेगी, ज्यों-ज्यों चिन्ता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) और जंजाल बढ़ता जायेगा, त्यों-त्यों मन और शरीर की अस्वस्थता के कारण उत्साह एवं जीवन-शक्ति घटती जायेगी, फलत: विद्या प्राप्त करना कठिन हो जायेगा। यही सुन्दर अवसर है, इससे लाभ उठाओ। अभ्यास 1. पढ़ने से क्या लाभ है ? 2. बिना पढ़े बच्चे कैसे पछताते हैं ? 3. कौन-सी चीज है जो देने से बढ़ती है ? 4. आदर किस चीज से मिलता है ? 5. बताओ, तुम क्या करोगे ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 जीवों की पाँच जाति जाति का अर्थ-वर्ग है, विभाग है। जो पदार्थ एक जैसे हों, उनको एक जाति का कहते हैं। सब मनुष्य रूप से एक हैं, इसलिए सब मनुष्यों के लिए मानव-जाति शब्द का प्रयोग किया जाता है। मनुष्य चाहे कैसे ही काले, गोरे, हिन्दुस्तानी, यूरोपियन, अमरीकन और हब्शी बगैरह हों, परन्तु सबका आकार, शक्ल-सूरत एक-जैसी ही है, इसीलिए सब मनुष्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार पशु-जाति, पक्षी-जाति, वृक्ष-जाति आदि के सम्बन्ध भी समझ लेना चाहिए। ___ अब यहाँ इस पाठ में संसारी जीवों का वर्णन किया जाता है। इन्द्रिय के भेद से सबके-सब संसारी जीव पाँच प्रकार के होते हैं। जैन-धर्म में इन पाँच प्रकार के जीवों के समूह की जाति का नाम दिया है। भगवान् महावीर ने बताया है, कि सबके सब संसारी जीवों की पाँच जातियाँ हैं। कहने का अभिप्राय यह है, कि सबके-सब संसारी जीव पाँच जातियों में हैं, यानी पाँचों भागों में बँटे हुए हैं। वे पाँच जाति इस प्रकार हैं-1.एकेन्द्रिय जाति--एक इन्द्रिय वाले जीव, 2. द्वीन्द्रिय जाति-दो इन्द्रिय वाले जीव, 3. त्रीन्द्रिय जाति Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12 ) तीन इन्द्रिय वाले जीव, 4. चतुरिन्द्रिय जाति - चार इन्द्रिय वाले जीव, और 5. पंचेन्द्रिय जाति - पाँच इन्द्रिय वाले जीव । 1. एकेन्द्रिय जाति के जीव उन्हें कहते हैं, जिनके एक स्पर्शन इन्द्रिय (शरीर - त्वचा) ही पाई जाये। जैसे——— कच्ची मिट्टी, जल, आग, पेड़-पौधे, फल-फूल आदि। हवा और 2. द्वीन्द्रिय जाति के जीव उन्हें कहते हैं, जिनके एक स्पर्शन (त्वचा), और दूसरी रसन ( जीभ), ये दो इन्द्रियाँ पाई जाएँ। जैसे—लट, शंख, जौंक और केचुआ आदि । 3. त्रीन्द्रिय जाति के जीव उन्हें कहते हैं, जिनके एक स्पर्शन (त्वचा), दूसरी रसन ( जीभ), और तीसरी घ्राण (नाक), ये तीन इन्द्रियाँ पाई जाएँ। जैसे - चिउँटी, मकोड़ा, खटमल, जूं, और कुन्थुआ आदि । 4. चतुरिन्द्रिय जाति के जीव उन्हें कहते हैं, जिनके एक स्पर्शन (त्वचा), दूसरी रसन ( जीभ), तीसरी घ्राण (नाक), चौथी चक्षु (आँख), ये चार इन्द्रियाँ पाई जाएँ। जैसे—- मक्खी, मच्छर, ततैया, भौंरा और बिच्छू आदि । 5. पंचेन्द्रिय जाति के जीव उन्हें कहते हैं, जिनके एक स्पर्शन (त्वचा), दूसरी रसन ( जीभ), तीसरी घ्राण (नाक), चौथी चक्षु (आँख), और पाँचवीं कर्ण (कान), ये पाँच इन्द्रियाँ पाई जाएँ। जैसे—आदमी, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 13 ) औरत, घोड़ा, गाय, कबूतर, मेढक, मछली, साँप, मोर, कुत्ता, बिल्ली, हिरन और सिंह आदि। संसारी जीवों के स्थावर और त्रस के नाम से भी दो भेद किये हैं। जैन-धर्म में हरेक चीज का वर्णन बहुत विस्तार के साथ, कई-कई तरह के भेद बता-बता कर किया गया है। ऊपर जो संसारी जीवों की पाँच प्रकार की जातियाँ बताई गई हैं, संक्षेप में, ये पाँचों जातियों स्वर और वस के भेर में समा जाती हैं। इन पाँचों जातियों में से पहले नम्बर के एकेन्द्रिय जाति के जीव स्थावर कहलाते हैं। पृथ्वीकार कच्ची मिट्टी, अप्काय-कुएँ आदि का पानी, तेजस्काय = जलती आग, वायुकाय-ठण्डी हवा और वनस्पतिकाय-हरे वृक्ष, से सब स्थावर जीव अपने-आप चल-फिर नहीं सकते, इधर-उधर आ-जा नहीं सकते। इनमें चेतना-शक्ति बहुत थोड़ी होती है। स्थावर से बिल्कुल उल्टे त्रस होते हैं। बस जीव अपने संकल्प के अनुसार चल-फिर सकते हैं, इधर-उधर आ-जा सकते हैं, इनमें स्थावरों की अपेक्षा चेतना-शक्ति अधिक होती है। स्थावरों में संकल्प-शक्ति नहीं है, किन्तु स में है। बस अपने भले-बुरे का विचार करते हैं। दो इन्द्रिय जीवों से लेकर पाँच इन्द्रिय तक के जीव Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 14 ) बस कहलाते हैं। लट, चिउँटी, मक्खी और पशु-पक्षी आदि सब त्रस जीव हैं। दो इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले जीवों तक को विकलेन्द्रिय भी कहते हैं। अभ्यास 1. जाति किसे कहते हैं ? 2. संसारी जीवों की कितनी जातियाँ हैं ? 3. पाँच जातियाँ किस अपेक्षा से हैं ? 4. एकेन्द्रिय जीव किसे कहते हैं ? 5. द्वीन्द्रिय जीव किसे कहते हैं ? 6. पंचेन्द्रिय जीव किसे कहते हैं ? 7. जल, वृक्ष, लट, चिउँटी, मच्छर, ऊँट, हाथी, चूहा, मछली, मोर, ये किस जाति के जीव हैं ? 8. स्थावर कौन जीव हैं ? 9. त्रस जीव कौन हैं ? 10. स्थावर किसे कहते हैं ? 11. बस किसे कहते हैं ? Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 भगवान् पार्श्वनाथ भगवान् पार्श्वनाथ का समय हठयोगी तापसों का समय था । उस समय भारत की जनता जड़ क्रिया-काण्डों में उलझ कर सत्य-भ्रष्ट हो गई थी। कुछ साधक अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तप करते थे । कुछ वृक्ष की शाखा से पैर बाँधकर औंधे मुँह लटके रहते थे। कुछ सूखे पत्ते चबाकर ही जिन्दगी बिता रहे थे। इसी युग में, काशी के राजा अश्वसेन के यहाँ पोष बदी दशमी के दिन भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। भगवान् की माता का नाम वामा देवी था। एक बार काशी में गंगा के तट पर युग का प्रसिद्ध तपस्वी कमठ आया । वह रात-दिन अपने चारों ओर अग्नि जलाकर तप किया करता था। हजारों नर-नारी कमठ के दर्शनों को उमड़ पड़ते थे। अपनी पूजा प्रतिष्ठा देखकर साधु को मिथ्या अहंकार हो गया था। महारानी वामा देवी भी उसके दर्शन को गईं। राजकुमार पार्श्व भी . साथ थे। राजकुमार को जनता की धर्म - मूढ़ता पर बहुत दुःख हुआ । पार्श्व अपने ज्ञान नेत्र से देखा कि धूनी के एक लक्कड़ में, जो अन्दर से खोखला है, नाग-नागिन का एक जोड़ा जल रहा है। पार्श्व कुमार ने | कहा- तपस्वी! तुम तो धर्म की जगह अधर्म कर रहे हो। देखो, धूनी सि साँप का जोड़ा जल रहा है। 15 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 16 ) घमण्डी साधु यह शिक्षा कैसे ग्रहण करता ? वह बहुत बिगड़ा और झट से उठकर कुल्हाड़ी से जलता हुआ लक्कड़ फाड़ने लगा। सचमुच, उसमें से बिल-बिलाता हुआ अधजला साँप का जोड़ा बाहर निकला। साधु की प्रतिष्ठा भंग हो गई। खिसियाना होकर भाग गया। दयालु राजकुमार ने साँप के जोड़े को उपदेश किया। नवकार मन्त्र सुनाया। जिसके प्रभाव से वे मर कर धरणेन्द्र और पद्मावती नामक नाग कुमार जाति के देव और देवी हो गए। ___ एक बार काशी-नरेश के मित्र राजा प्रसेनजित् पर किसी विदेशी राजा ने चढ़ाई की। वह राजा प्रसेनजित् की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी राजकुमारी प्रभावती से विवाह करना चाहता था। राजकुमारी इसके लिए तैयार न थी। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। शत्रु की सेना अधिक थी। फलत: राजा प्रसेनजित् घबरा उठे। ज्योंही यह समाचार काशी पहुँचा, तो राजकुमार पार्श्व सेना लेकर पहुँचे, शत्रु राजा परास्त हो गया। प्रभावती का विवाह पार्श्व कुमार से हुआ। राजकुमार पार्श्व का मन संसार से उदासीन रहने लगा। देश की धार्मिक आचार-विचार की दुरवस्था भी उनको असह्य हो गई थी। फलतः अपनी अपार सम्पत्ति गरीब जनता को अर्पण कर वे मुनि बन गये। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 17 ) एक बार एक जंगल में भगवान् पार्श्वनाथ, जो ध्यान लगाये खड़े थे कि वह कमठ तपस्वी, जो मरकर अब मेघमाली देवता हो गया था, आ पहुँचा। मूसलाधार पानी बरसा कर उसने भगवान् को कष्ट पहुंचाया। भगवान् अपने ध्यान में तल्लीन रहे, जरा भी नहीं डिगे। अन्त में धरणेन्द्र-पद्मावती ने आकर भगवान् की सेवा की। मेघमाली हार कर प्रभु के चरणों में आ गिरा। क्षमा माँगने लगा। प्रभु दयालु थे, उसे क्षमा क दिया। भगवान् ने विशाल संयम साधना के बाद केवल-ज्ञान प्राप्त किया और जनता के वास्तविक भगवान् हो गये। भगवान् ने जड़ क्रिया-काण्ड के स्थान में विवेक-पूर्वक धर्म-साधना का उपदेश दिया। नाना प्रकार के पाखण्ड नष्ट कर दिये गये। भगवान् ने मगध, विदेह, कलिंग, बंगाल, काशी और कौशल आदि देशों में भ्रमण कर जैन-धर्म का प्रचार किया और अन्त में बिहार प्रदेश के सम्मेद्-शिखर पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। अभ्यास 1. भगवान् पार्श्वनाथ का समय कैसा था ? 2. कमठ से क्या बात हई ? 3. प्रभावती से विवाह कैसे हुआ ? 4. मेघमाली ने क्या उपसर्ग दिया ? Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश में ऐसी नारी हो विश्वभर की उपकारी हों, सत्य, शील गुण-धारी हो ! धर्म में रत अविकारी हों, दुःखी के प्रति सुखकारी हों ! सदा-सन्मार्ग-विहारी हों ! देश में ऐसी नारी हों !! प्रेम की सरिता बहती हो, स्वार्थ की दाल न गलती हो ! राष्ट्र की दीप्ति दमकती हो, सुख की वृष्टि बरसती हो ! जगत में महिमा-धारी हों ! देश में ऐसी नारी हों !! दिखादें बिजली का-सा काम, न चाहें केवल अपना नाम। कर्म में निरत , रहें निष्काम, शील का ध्यान रखें अविराम। वीर-गुण गरिमा धारी हों ! देश में ऐसी नारी हों !! 18 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 19 ) बनायें आप भाग्य अपना, दिखा कर बल-पौरुष अपना ! न देखें झूठा कुछ सपना, कर्म का मन्त्र सदा जपना ! सत्य पर नित बलिहारी हों ! देश में ऐसी नारी हों !! दुःखों के सह लेवें जो शूल, न घबरावें निज पथ को भूल ! कर्म पर आप चढ़ावें फूल, सिखादें जग को जीवन मूल ! देश की, कुल की प्यारी हों ! देश में ऐसी नारी हों !! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार गति भारत के प्राचीन धर्माचार्यों ने संसारी जीवों को नरक -गति, तिर्यंच-गति, मनुष्य - गति, और देव-गति, इस प्रकार चार गतियों में बाँटा है। गति का अर्थ है, जीव की वह खास अवस्था, जिसे पाकर वह अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगता है, सुख-दुःख पाता है। जब तक उस अवस्था में भोगने योग्य बाँधे हुए कर्मों को भोग नहीं लेता, तब तक वहाँ से मर कर दूसरी अवस्था में नहीं जा सकता । नरक -गति 8 नरक -गति, इस भूमि के नीचे है। कुल सात नरक हैं जो एक-दूसरे के नीचे हैं। सबसे बड़ी सातवीं नरक है। नरक में दुःख ही दुःख हैं। सुख तो नाम मात्र को भी नहीं है। नरक के जीवों को भूख, प्यास, सरदी गरमी, छेदन-भेदन, मारपीट आदि नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं नरक में जनम लेने वाले जीवों को नारकी कहते हैं। नारकी जीवों वे शरीर आधे जले हुए मुर्दे के समान बड़े ही भद्दे और बेडौल होते हैं उनके शरीर से बड़ी भयंकर दुर्गन्ध आती है। नरक में कौन जाते हैं. जो लोग बड़े निर्दय होते हैं, शिकार करते हैं, माँस खाते हैं, शरा पीते हैं, वे नरक में जाते हैं, बुरे कर्मों का बुरा फल भोगना ही होता है 20 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 21 ) तिर्यंच-गति पृथ्वीकाय के जीव, जलकाय के जीव, अग्निकाय के जीव, वायुका के जीव और वनस्पतिकाय के जीव-ये सब एकेन्द्रिय जीव तिर्य कहलाते हैं। कीड़े, मकोड़े, मक्खी आदि तीनों विकलेन्द्रिय, तथा पंचेन्द्रि में जलचर-मछली आदि, स्थलचर-गाय, भैंस, साँप, चूहा, आदि खेचर-तोता, हंस आदि पंक्षी भी तिर्यंच कहलाते हैं। यह तिर्यंच-गति सब बडी है। अनन्त जीव इसी गति में हैं। तिर्चय-गति में कौन जाते हैं ? जो प्राणी झूठ बोलते हैं, छल-कपट करते हैं, दूसरों को धोखा देते हैं, व्यापार आदि में बेईमानी करते हैं, वे तिर्यंच-गति में जन्म लेते हैं। यह गति भी बरे कर्मों का फल भोगने के लिए मनुष्य-गति चार गतियों में मनुष्य-गति सर्वश्रेष्ठ है। बड़े भारी पुण्य का उदय होता हैं, तब कहीं जाकर मनुष्य बना जाता है। भगवान् महावीर मनुष्यों को देवानुप्रिय के नाम से सम्बोधन किया करते थे। देवानुप्रिय का अर्थ है-देवताओं के भी प्यारे। अर्थात् देवता भी मनुष्य बनने की कामना करते हैं। और किसी गति से मोक्ष नहीं मिलती है। मनुष्य जीवन में ही साधना के द्वारा मोक्ष प्राप्त होती है। मनुष्य कौन हो सकते हैं ? जो प्राणी स्वभाव से सरल हो, विनयवान ही, दयालु हो, परोपकारी हो और किसी की उन्नति को देखकर डाह वगैरह Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22 ) न करता हो, वह मर कर मनुष्य-गति में जन्म लेता है। मनुष्य होने के लिए सन्तोषी और उदार जीवन का होना आवश्यक है। देव-गति जैन-धर्म में देवताओं के चार भेद बताये हैं-1.भवन-पति-असुर, नाग आदि, 2. व्यन्तर—भूत, प्रेत, राक्षस आदि, 3. ज्योतिष्क-चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि और 4. वैमानिका वैमानिक देव सब देवताओं में श्रेष्ठ माने गये हैं। इन देवों के ऊपर आकाश लोक में सौधर्म, ईशान आदि छब्बीस स्वर्ग हैं। देवगति सुख भोगने की गति है। देवता रात-दिन सुख में मग्न रहते हैं। देवता अपने शरीर को छोटा-बड़ा मनचाहा बना सकते हैं। देवगति में कौन जन्म लेता है ? जो प्राणी साधु-धर्म अथवा श्रावक-धर्म का पालन करता है, दान देता है, तप करता है, दीन-दुःखियों की सेवा करता है, वह मरकर देव-गति में जन्म लेता है। अभ्यास 1. गति किसे कहते हैं ? 2. गति कितनी होती हैं ? 3. नरक में कौन जाता है ? 4. मनुष्य कौन होता है ? 5. देव कौन होता है ? 6. सबसे अच्छी गति कौन-सी है, और क्यों ? Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 धर्म अहिंसा सबका पयारा, हरता है जग का दुःख सारा । जय जैन-धर्म की बोलो, जय जैन-धर्म की बोलो। प्रेम की मिसरी घोलो, जय जैन धर्म की बोलो। त्यागो वैर-विरोध बुराई, करो सभी की सदा भलाई । मन की कुण्डी खोलो, जय जैन-धर्म की बोलो। महावीर का नाम सुमरना, जीवन का पथ उज्ज्वल करना । पाप - कालिमा धो लो, जय जैन-धर्म की बोलो। 23 प्रयाण गीत Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 24 ) अनेकान्त की ज्योति जगाना, पक्षपात का भाव हटाना, 'अमर' सचाई तोलो, जय जैन-धर्म की बोलो। यह गीत जुलूस के रूप में चलते हुए गाया जाता है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 अहंकार पर विजय हाथी ने कहा- “मैं बड़ा हूँ।' बन्दर ने कहा--- "मैं बड़ा हूँ" हाथी और बन्दर वन में रहते थे। दोनों में भाईचारा था, पक्की मित्रता थी। एक दिन बड़प्पन को लेकर दोनों में झगड़ा हो गया। दोनों में बड़ा कौन है ? हर एक ने अपने-अपने बड़प्पन का दावा किया। __हाथी ने कहा- “पागल, बन्दर !'' यह मेरा पहाड़ जैसा शरीर तो देख ! तू मेरे आगे क्या चीज है ? देख मैं कितना मोटा और बलवान हूँ।" ___ बन्दर ने कहा- "डींग मारने से क्या फायदा ? आओ, सामने पहाड़ पर चढ़े। देखें कौन चढ़ता है पहले ? दोनों में काफी देर तक संघर्ष होता रहा। परन्तु, किसी निर्णय पर नहीं पहुँचे सके। आखिर, पंच फैसला कराने का निश्चय हुआ। बन्दर ने कहा— “हाथी भाई, उल्लू बहुत चतुर और गम्भीर माना जाता है। चलो, उल्लू से फैसला करा लें। हाथी और बन्दर दोनों उल्लू के पास गए। दोनों ने अपने-अपने बड़प्पन का दावा पेश किया। 25 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 26 ) - उल्लू ने आँखें तरेरते हुए सूखे मुँह से कहा एक काम करो। सामने नदी के परली पार पर आम का पेड़ है। उसकी सबसे ऊँची टहनी पर तीन पके हुए आम लटक रहे हैं। वे पहिले मुझे लाकर दो, फिर मैं तुम्हारा फैसला करूँगा। हाथी और बन्दर झटपट आम लाने को दौड़े। नदी पर आते ही बन्दरजी। सिट-पिटा गए। नदी वेग से उछाल खाती हुई बह रही थी। बेचारा कैसे पार करे ? हाथी ने कहा- "डरता है ? आ, मेरी पीठ पर बैठ जा !'' बन्दर झट उछल कर हाथी की पीठ पर बैठ गया। हाथी मस्त झूमता हुआ नदी में घुसा और पार हो गया। आम का पेड़ बहुत पुराना और बहुत ऊँचा था। उसकी सबसे ऊँची टहनी पर तीन पके हुए आम लटक रहे थे। आम लेने के लिए हाथी ने अपनी सूंड को बहुत ऊँचा किया, पर सूंड उस ऊँचाई तक पहुँच न सकी। ___ हाथी ने सूंड से टहनी को नीचे झुकाने की भी चेष्टा की, परन्तु इस काम में भी उसे निराशा ही मिली। बन्दर ने कहा- “ हाथी भाई, जरा खड़े रहो। मैं अभी आम तोड़कर लाए देता हूँ। इसमें है क्या ?" बन्दर झटपट पेड़ पर गया। पलक मारते आम तोड़ कर नीचे उतर आया। हाथी की पीठ पर बैठकर फिर पहिले की तरह नदी पार कर ली। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 27 ) हाथी और बन्दर दोनों ने उल्लू की सेवा में तीन आम उपस्थित कर दिये। उल्लू ने कहा- "तुम ये आम कैसे लाए, मुझे बताओ ?' हाथी और बन्दर ने सब बात सच-सच कह दी। उल्लू ने कहा- "बस, फैसला हो गया। तुम ही बताओ, दोनों में कौन बड़ा है। क्यों बन्दरजी; तुम अकेले नदी पार कर जाते और क्यों हाथीजी, तुम अकेले ऊँची टहनी से आम तोड़ कर ले आते ? बस, दोनों अपने-अपने काम में बढ़े-चढ़े हो। कोई छोटा नहीं और कोई बड़ा नहीं। अच्छा जाओ फिर कभी इस तरह मत झगड़ना।'' __ बच्चो, तुम्हें बड़प्पन का अभिमान नहीं करना चाहिए। संसार में कोई बड़ा-छोटा नहीं है। सब अपने-अपने कामों में बड़े हैं। संसार का काम मिलजुल कर ही चलता है। इसलिए तुम कभी अहंकार न करो। सबसे प्रेम के साथ मिलकर रहो। ___भगवान् महावीर का उपदेश है— “जो अहंकार को जीतता है, वह सम्पूर्ण विश्व को जीतता है।" अभ्यास 1. बन्दर और हाथी में झगड़ा क्या था ? 2. उल्लू ने कैसे फैसला किया ? 3. कौन बड़ा और कौन छोटा है ? 4. इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 अच्छे काम आप विचार में होंगे कि— “हम अभी बच्चे हैं, हम क्या अच्छे काम कर सकते हैं ? अच्छे काम तो वे कर सकते हैं, जो आयु में बड़े हैं, घर के मालिक हैं। जिनका आदेश घर में और बाहर में चलता है। जिनका कहना सब मानते हैं। हम इतनी छोटी-सी आयु में भला अच्छे काम को क्या समझें?'' आपका यह समझना बिल्कुल गलत है। आप छोटे हैं, तो क्या हुआ? क्या छोटी आयु में अच्छे काम नहीं किए जा सकते ? भलाई करने के लिए दिल चाहिए, फिर मनुष्य कभी भी अच्छे काम कर सकता है। यदि तुम बचपन से ही सत्कर्म करने की ओर मन न लगा सके, तो फिर बड़े होकर भी कुछ न कर सकोगे। शुभ संस्कार बचपन से ही अपने अन्दर उत्पन्न करने चाहिए। ___हाँ, तो तुम क्या-क्या अच्छे काम कर सकते हो ? देखो, किसी लड़के की पेंसिल खो गई हो और तुम्हारे पास फालतू हो, अथवा उस समय तुम्हें अपनी पेंसिल की जरूरत न हो, तो तुम्हें अपनी पेन्सिल उपयोग के लिए उसे दे देनी चाहिए। ___किसी लड़के की दवात गिर गई हो, या कोई लड़का किसी कारण से अपनी दवात स्कूल में न ला सका, हो, अपनी दवात से उसे लिखने के लिए दे देना चाहिए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 29 ) किसी काम के कारण. तुम्हारी कक्षा का कोई लड़का स्कूल न आ सका हो और वह तुमसे पूछे कि आज कौन-सा पाठ पढ़ा है, और किस तरह पढ़ा है, तो तुम्हें उसको वह पाठ बता देना चाहिए । कोई बच्चा या बूढ़ा रास्ता भूल गया हो और तुम्हें उसका घर या मुहल्ला मालूम हो, तो तुम्हें उसे ठीक-ठीक रास्ता बता देना चाहिए। किसी गरीब बालक के पास पुस्तक न हो, और वह पुस्तक तुम्हारे पास, अगली कक्षा में चले जाने के कारण, निकम्मी पड़ी हुई हो, तो वह उसे उपयोग करने के लिए दे देनी चाहिए। तुम्हारे पड़ोस में कोई अन्धा, लूला, लंगड़ा, बीमार दुःखी मनुष्य हो, अथवा कोई स्त्री हो, और वह तुम्हें किसी समय कोई ऐसा काम कर देने को कहे, जिसे तुम कर सकते हो, तो तुम्हें वह काम प्रसन्नता से कर देना चाहिए। असहाय की सेवा करना परम धर्म है। कोई भूखों मरता कुत्ता तुम्हें दीख पड़े, तो अपनी माँ से कहकर रोटी का टुकड़ा उसे डालना चाहिए। भूखा कुत्ता रोटी पाकर कितना सन्न होता है, यह तुम उसे दुम हिलाते हुए देखकर जान सकते हो। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30 ) जैन-धर्म दया का धर्म है। जहाँ दया है, वहाँ जैन-धर्म है। जहाँ दया नहीं है, वहाँ जैन-धर्म भी नहीं है। अभ्यास 1. कौन-सा अच्छा काम है ? 2. कोई रास्ता भूल जाए, तो तुम क्या करोगे ? 3. अन्धे और लंगड़े से कैसा बर्ताव करना चाहिए ? 4. जैन-धर्म कहाँ है? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा का उद्देश्य आचार्य विश्वश्रुत के तीन शिष्यों ने शिक्षा समाप्त करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए अनुमति माँगी। आचार्य की आँख स्नेह से डबडबा आईं, किन्तु कर्त्तव्य को लक्ष्य में रखते हुए अनुमति दे दी। उस समय संध्या हो रही थी। तीनों शिष्य अपनी-अपनी तैयारी करने लगे। सहसा आचार्य के मस्तिष्क में एक योजना आई। प्रात: जाकर उन्होंने राह में काँटे बिखेर दिये और खुद छिपकर बैठ गए। जाते हुए तीनों शिष्यों ने काँटे बिखरे देखे। पहला, जैसे-तैसे लांघकर आगे बढ़ गया। दूसरा पल भर ठिठका, फिर वापस लौटने लगा। तीसरा, अपना सामान एक ओर रखकर उन काँटों को बीनने लगा। आचार्य ने उस तीसरे शिष्य को जाने दिया, पर उन दोनों शिष्यों को यह कहकर रोक लिया, कि- “वत्स ! तुम दोनों की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई है। तुमने शिक्षा का उद्देश्य अभी नहीं समझा है। शिक्षा वही है, जिसको पाकर मनुष्य अपने और दूसरे के मार्ग की बाधाओं को दूर कर सके। अपने और दूसरों के मार्ग में बिखरे हुए काँटों को दूर 31 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) हटाकर जीवन-पथ को साफ-सुथरा बना सके। इसलिए तुम दोनों अभी ठहरो और जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त करो।" अभ्यास 1. आचार्य ने मार्ग में काँटे क्यों बिखेरे ? 2. दोनों शिष्यों को क्यों नहीं जाने दिया ? 3. शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य : 1: चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम इतिहास में तुमने पढ़ा होगा। वह भारत का प्रथम सार्वभौम सम्राट कहलाता है। यद्यपि उससे पहले कितने ही चक्रवर्ती राजा हो चुके हैं, किन्तु भगवान् महावीर के पश्चात् उसने ही सर्व प्रथम सारे भारत को जीतकर उसे एक सूत्र में बाँधा था। वह छोटे-से मोरिय-गणतन्त्र की एक शाखा का राजकुमार था। किन्तु अपने गुरु चाणक्य की सहायता से और अपनी वीरता से तत्कालीन अत्याचारी राजाओं को जीतकर समग्र भारत का सम्राट बन गया। अगर सच्ची इच्छा हो और सही प्रयत्न किया जाये, तो कौन-सा काम पूरा नहीं हो सकता ? चन्द्रगुप्त अपने नाना के यहाँ रहता था। उसके नाना 'मोरिय' नामक गणतन्त्र के अध्यक्ष थे। वे राजा कहलाते थे। कुमार चन्द्रगुप्त वहीं खेले-कूदे और बड़े हुए। जब वे अभी बच्चे ही थे, तभी से उनमें दूसरे बालको से कुछ विशेषताएँ थीं। वे हमेशा राजा का खेल खेलते। स्वयं तो राजा बनते और अपने साथियों में से ही किसी को मन्त्री, किसी को सेनापति और किसी को और कुछ बनाते। इसलिए तो कहा है "होनहार बिरवान के, होत चीकने पात।' 33 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) एक दिन वे इसी प्रकार का खेल, खेल रहे थे। तभी चाणक्य नाम के ब्राह्मण परिव्राजक उधर आ निकले। उन्होंने देखा कि बच्चों का दरबार लगा हुआ है। उनमें एक तेजस्वी बालक राजा बना हुआ है। सामने एक बालक अपराधी के रूप में खड़ा है। बालक राजा उसका न्याय कर रहा है। बालक के न्याय का ढंग देखकर, चाणक्य को बड़ा कुतूहल हुआ । वह आगे बढ़ा और बोला, 'महाराज की जय हो। मैं ब्राह्मण हूँ। मुझे कुछ भिक्षा मिल जाये।' बालक चन्द्रगुप्त एक राजा की तरह बड़े रोब से बोला- 'जाओ, तुम्हें सौ गायें भिक्षा में दे दीं। वे सामने गायें चर रही हैं, तुम उन्हें ले लो।' चाणक्य बोले— 'लेकिन महाराज ! वे गायें तो दूसरे की हैं ? वह कैसे लेने देगा ?' चन्द्रगुप्त का मुख रोष से सुर्ख हो गया। बोला- 'कौन कहता है, वे गायें दूसरे की हैं, वे उनकी हैं, जो उन्हें लेने की ताकत रखता हो। तुममे ताकत हो, तो सब कुछ तुम्हारा अपना हो सकता है । ' बस, दरबार समाप्त हो गया। बालक अपने-अपने घर जाने लगे। चाणक्य को यह विश्वास हो गया, कि यह बालक होनहार है। उन्होंने बालक से उसका नाम पूछा और उसके पिता से जाकर मिले। चाणक्य बोले- 'आपका बालक बड़ा होनहार है। मैं चाहता हूँ, आप इस बालक को मुझे दे दें। मैं इसे विद्या पढ़ाऊँगा । ' Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) चाणक्य साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे बहुत बड़े विद्वान थे। चन्द्रगुप्त के माता-पिता चाणक्य की बातों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने चन्द्रगुप्त को चाणक्य की सेवा में अर्पित कर दिया। आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को सभी शास्त्र, शस्त्र और राजनीति की शिक्षा दी। चन्द्रगुप्त पढ़-लिख गया और सभी विद्याओं में निपुण हो गया, तब चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त ने नन्द वंश के राजा महापद्म नन्द को जीतने की सोची। अभ्यास 1. चन्द्रगुप्त कहाँ के राजकुमार थे ? 2. चाणक्य ने चनद्रगुप्त से कब क्या कहा था ? 3. चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से क्या कहा ? Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 : 2: आचार्य चाणक्य एक रासायनिक विद्या जानते थे। उससे सोना बना सकते थे। महापद्म नन्द बहुत शक्तिशाली राजा था। उसे हराने के लिए बहुत सेना की आवश्यकता थी। बस चाणक्य सोना बनाने लगे और उससे सेना भर्ती करने लगे। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जब सेना भर्ती हो गई, तो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के साथ नन्द वंश की राजधानी पाटलिपुत्र पर सीधा आक्रमण किया। उन दिनों राजा लोग अपनी राजधानी में काफ़ी फौज रखते थे। अतः चन्द्रगुप्त की छोटी-सी सेना युद्ध में नन्दराज की विशाल सेना के सामने टिक न सकी और भाग खड़ी हुई । जब सेना ही भाग गई, तब अकेले चाणक्य और चन्द्रगुप्त क्या कर सकते थे ? वे भी अवसर देखकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए भागे । उनको पकड़ने के लिए राजा नन्द के सिपाही भी उनके पीछे-पीछे दौड़े। चाणक्य और चन्द्रगुप्त भागे जा रहे थे। तभी एक गाँव में एक गृहस्थ के घर के द्वार से चाणक्य ने सुना -- एक बालक जोर-जोर से रो 36 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( 37 ) रहा था और उसकी बूढ़ी दादी उसे डाँट रही थी। तू तो चाणक्य की तरह मूर्ख है। मूर्खता करेगा, तो कष्ट पायेगा ही। चाणक्य को अपना नाम सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह घर के भीतर गया और बोला- 'माता ! मैं भीतर आने के लिये क्षमा चाहता हूँ। अभी आप चाणक्य को मूर्ख बता रही थी सो क्यों ?' - वृद्धा बोली- "बेटा ! चाणक्य ने मूर्खता की कि उसने सीमान्त के देशों को तो जीता नहीं, सीधा राजधानी पर आक्रमण कर दिया। ऐसे ही इस मूर्ख बालक ने भी गलती की। मैंने इसको खिचड़ी परोसी थी। खिचड़ी गर्म थी। इसे खिचड़ी ठण्डी करके किनारे से खानी चाहिए थी किनारा जल्दी ठण्डा होता है। लेकिन, इसने बीच में हाथ डाल दिया। इससे इसका हाथ जल गया।" चाणक्य वहाँ से बाहर आ गये। उन्हें अपनी गलती का अनुभव हो गया। उन्होंने फिर सेना इकट्ठी की और तब चन्द्रगुप्त ने सीमान्त प्रदेशों को जीतना शुरू किया। इसी तरह जीतते-जीतते उन्होंने बहुत दूर तक का प्रदेश जीत लिया और एक दिन नन्द राजा को हराकर पाटलिपुत्र पर अपना झण्डा लहरा दिया। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) चन्द्रगुप्त मौर्यवंश के प्रथम सम्राट् थे। उन्होंने सारे भारत और उसके आस-पास के देशों को जीतकर अपना विशाल साम्राज्य स्थापित किया। उनके राज्य में प्रजा बड़ी सन्तुष्ट और मालदार थी। चोरों, डकैतों का नाम तक न था । लोग अपने घरों में ताले तक नहीं लगाते थे। इस प्रकार आचार्य चाणक्य की सहायता से चनद्रगुप्त मौर्य ने भारत को स्वर्ग बना दिया। जब सम्राट् वृद्ध हो गये, तब वे जैन मुनि बन गये। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से जैन मुनियों के धार्मिक नियमों का पालन किया । वास्तव में चन्द्रगुप्त एक आदर्श राजा था। अभ्यास 1. चाणक्य किस विद्या से सोना बनाते थे ? 2. वृद्धा ने चाणक्य से क्या कहा ? 3. चन्द्रगुप्त वृद्धावस्था में कौन बन गये थे ? Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 माता-पिता की सेवा माता-पिता का पद बहुत ऊँचा पद है। इस पद की तुलना संसार के किसी भी उच्च पद से नहीं की जा सकती। अपनी सन्तान पर माता-पिता का बड़ा उपकार है। विचार करो कि हमारे माता-पिता यदि हमारा जन्म से पालन-पोषण न करें तो हमारा क्या हाल हो ? हमारे बीमार होने पर वे हमारी देख-भाल न करें, तो हम कैसे जी सकेंगे ? वे हमें न पढ़ाएँ, तो हम बिल्कुल जंगली जैसे बन जायेंगे। अधिक.क्या, वे यदि हमें प्रत्येक बात में सहायता न करें, तो हमारा कैसा बुरा हाल हो ? हमारे माता-पिता हमें खाने-पीने को देते हैं। पहनने को कपड़ा देते हैं, हमारी सुख-सुविधा के लिए सब साधन जुटाते हैं, हमारे लिये गरमी-सरदी झेलते हैं, दूसरों के अपमान सहते हैं। हमारे कारण उनको अनेक प्रकार के झंझटों में, झगड़ों में पड़ना पड़ता है। हमारे माता-पिता इतने दयालु हैं कि वे हमसे कुछ नहीं माँगते। उनका हम पर बड़ा प्रेम है। उनके उपकार का बदला हम किसी भी दशा में नहीं चुका सकते। हमें तो बस यहाँ एक काम करना चहिए कि सदैव उनका 39 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) कहना मानें। उनकी टहल-सेवा करें। जिस तरह भी वे खुश रहें, वही करना चाहिए। संसार के बड़े से बड़े महापुरुष अपने माँ-बाप का कहना माना करते थे। भगवान् महावीर अपनी माता के कैसे भक्त थे ? वे गृहस्थ अवस्था में अट्ठाईस वर्ष तक माता-पिता की सेवा में रहे। उन्होंने तो गर्भ में रहते हुए ही यह प्रण कर लिया था, कि “जब तक माता-पिता विद्यमान रहेंगे, मैं उनको छोड़कर मुनि दीक्षा नहीं लूँगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे माता-पिता को मेरे किसी काम से दुःख हो।" जो बालक और बालिकाएँ भले होते हैं, वे अवश्य माता-पिता की सेवा करते हैं। अभिभावकों की आज्ञा तो पशु भी पालन करते हैं। बन्दर मदारी का कहना मानता है, गाय-भैंस ग्वाले का इशारा मानती हैं, और गधा भी अपने मालिक का कहना मानता है। यदि मनुष्य होकर भी हम अपने अभिभावक माता-पिता की आज्ञा न मानें तो यह कितनी खराब बात होगी। माता-पिता की आज्ञा न मानना, उनको दुःखी करना, संसार में बहुत बड़ा पाप माना गया है। जो बालक-बलिका अपने माता-पिता का आशीर्वाद ग्रहण करते हैं, वे सदैव आनन्द मंगल में रहते हैं, उनका यहाँ भी भला होता है और आगे भी भला होता है। अभ्यास 1. माता-पिता का क्या उपकार है ? 2. माता-पिता की आज्ञा न मानो तो क्या हो ? 3. भगवान् महावीर माता-पिता के कैसे भक्त थे ? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __16 अहिंसा एक अहिंसा ही, सच्चा सुखशान्ति दिला सकती है। हिंसा रत जनता, न एकपल को कल पा सकती है।। द्वेष न कहीं, द्वेष के द्वारा, जीता जा सकता है ? कहीं आग द्वारा क्या कोई, आग बुझा सकता है ? करो न औरों के प्रति वह जो, स्वयं न तुम्हें सुहाता। सबको अपने-सम समझे जो, वह सच्चा सुख पाता।। व्यक्ति न कोई, घृणा योग्य है, करिए घृणा, घृणा से। हिंसा और क्रूरता को दो, बदल, दया-करुणा से।। __41 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 चन्दनबाला ___ भगवान् महावीर दीक्षा ग्रहण कर चुके थे, और शून्य वनों में रहकर साधना कर रहे थे। प्राय: जंगल में ही रहते थे, केवल तपस्या के पारणे के लिए ही कभी-कभी नगरी में आते थे। एक बार भगवान् ने बड़ा लम्बा तपश्चरण किया। तप करते-करते पाँच मास और पच्चीस दिन हो गये उन्हीं दिनों भारतवर्ष की चम्पा नगरी में बड़ी भयंकर घटना हुई। चम्पा नगरी के राजा दधिवाहन और कौशाम्बी के राजा शतानिक में युद्ध छिड़ गया। शतानिक की विशाल सेना का आक्रमण दधिवाहन झेल न सका, पराजित होकर भाग खड़ा हुआ। दधिवाहन की रानी धारिणी और पुत्री चन्दनबाला भी वन में भागी जा रही थी, कि शतानिक के एक सैनिक ने उनको गिरफ्तार कर लिया। - सैनिक धारिणी और चन्दनबाला को रथ में बिठाकर, जब कौशाम्बी ले जा रहा था, तब वह मार्ग में धारिणी रानी के रूप को देखकर मोहित हो गया और कहने लगा- "तुम मेरे साथ रहना। मैं तुम्हें अपनी स्त्री बनाकर रखूगा, तुम्हें किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी।' 42 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) धारिणी ने यह सुना तो घबरा उठी। रानी ने देखा कि कामान्ध सैनिक छेड़-छाड़ करने पर उतारू है। अस्तु, रानी ने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जीभ खींचकर आत्म-हत्या कर ली। सैनिक ने रानी के मृत शरीर को वहीं जंगल में डाल दिया और चन्दनबाला को समझा-बुझाकर कौशाम्बी ले आया। चन्दनवाला भी अपनी सतीत्व पर दृढ़ थी। दुष्ट-सैनिक जब इस ओर से निराश हो गया, तो बाजार में उसे बेचने ले गया। उस युग में पशुओं के समान स्त्री और पुरुष भी बाजार में बेचे जाते थे। इस नीच प्रथा का भगवान् महावीर ने केवल-ज्ञान होने के बाद बड़ा जबर्दस्त विरोध किया था। जब वह सैनिक चन्दनबाला को बाजार में बेच रहा था, तब कौशाम्बी के नगर सेठ जैन-धर्मानुयायी धनावाह उधर आ निकले। उन्होंने एक भले घर की सुशील लड़की को बिकते देखा, तो व्याकुल हो गये। सैनिक को मुँह-माँगी कीमत देकर, चन्दनबाला को अपने घर ले आये। देखिए, प्राचीन काल में जैन लोग किस प्रकार दीन-दु:खी अबलाओं की सहायता किया करते थे। सेठ की स्त्री का नाम मूला था। वह बड़ी निर्दय स्वभाव की थी। चन्दनबाला के रूप को देखकर हैरान रह गई। उसने सोचा कि “हो न हो, सेठ अपनी स्त्री बनाने के लिए ही इसे लाया है। मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है। जरूर कुछ दाल में काला है।" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) एक समय की बात है-सेठजी तीन-चार दिन के लिए गाँव गये हुए थे। पीछे से मूला ने चन्दनबाला के पैरों में बेड़ी डालकर उसे तलघर में बन्द कर दिया और खुद अपने पीहर चली गई। चन्दनबाला तीन दिन तक भूखी-प्यासी तलघर में बन्द रही। वह इस दुःख में भी भगवान् का ध्यान करती रही। मूला पर थोड़ा-सा भी रोष न किया। 'यह सब मेरे पिछले बाँधे हुए कर्मों का फल है'-यही विचारती रही। चौथे दिन सेठजी गाँव से वापस घर को लौटे। चन्दनबाला की यह दशा देखकर उनको बड़ा ही दुःख हुआ। सेठजी ने बड़े प्रेम से उसे तहखाने से बाहर निकाला। वह तहखाने की चौखट पर आकर बैठ गई। तीन दिन तक तप ही रहा था, अत: भूख से व्याकुल थी। सेठजी ने इधर-उधर बहुत कुछ देखा, जब कुछ भी खाने को न मिला तो पशुओं के लिए पकाए हुए उड़द के बाकले ही लोहे के छाज में डाल कर दे दिए और खुद बेड़ी तुड़वाने के लिए लुहार को बुलाने चले गए। - चन्दनबाला उड़द के बाकलों को ठण्डा कर रही थी और भावना भा रही थी- 'आज मेरे तेले का पारणा है। अत: किसी पवित्र अतिथि को भोजन देकर ही पारणा करूँ, तो कितना अच्छा हो !'' वह यह विचार कर ही रही थी कि इतने में भगवान् महावीर स्वामी पधारे। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) चन्दनबाला के हर्ष का पार न रहा। बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ भगवान् को उड़द के बाकले ही अर्पण कर दिये। दान के प्रभाव से पैरों में पड़ी लोहे की बेड़ियाँ सोने के गहने बन गये, आकाश से देवताओं ने फूलों की वर्षा की। कौशाम्बी नगरी में घर-घर चन्दनबाला के गुण गाए जाने लगे। मूला ने भी आकर क्षमा माँगी। आखिर, प्रेम ने घृणा और द्वेष पर विजय प्राप्त की। भगवान् महावीर को जब केवल ज्ञान हुआ, तो चन्दना ने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। वह छत्तीस हजार आर्याओं में सबसे बड़ी अभिनेत्री बनी। लम्बी साधना के बाद आर्या चन्दना को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ और वह मोक्ष में जाकर अजर-अमर हो गई। अभ्यास 1. चन्दना कौशाम्बी कैसे आई ? 2. चन्दना ने भगवान् महावीर को क्या बहराया ? 3. इस कथा से क्या शिक्षा मिलती है ? Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 नव तत्त्व जैन-धर्म संसार में कुल नव तत्व मानता है। इनमें दो तत्त्व-जीव और अजीव, जो प्रारम्भ के हैं, मूल तत्व हैं। बाकी के सात तत्व उन दोनों तत्वों के मिलने-बिछुड़ने के ही रूप हैं। अन्तिम मोक्ष तत्व आत्मा का आपना शुद्ध स्वरूप है। ___1. जीव तत्त्व-जीव आत्मा को कहते हैं। ये आत्माएँ अनन्त हैं। जब तक आत्मा कर्मों से बँधी है, तब तक नरक तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में घूमता रहता है और जब वह कर्म से अलग होकर शुद्ध हो जाता है, तब भगवान् बन जाता है, मोक्ष पा लेता है। 2.अजीव तत्त्व-जो जीव न हो, जड़ हो, उसे अजीव कहते हैं। अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, उसे रूपी कहते हैं; जैसे—पृथ्वी जल, अग्नि आदि के परमाणु आदि। अरूपी उसे कहते हैं जिसमें उपर्युक्त रूप, रस आदि न हों; जैसे—आकाश, काल आदि आत्मा पर लगने वाले कर्म भी रूपी अजीव 3. पाप तत्त्व-हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और क्रोध मान,माया, लोभ आदि पाप हैं। इनके करने से आत्मा नरक आदि गतियों में दुःख पाता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) 4. पुण्य तत्त्व-भूखों को भोजन देना, प्यासों को पानी पिलाना, धर्मशाला बनाना, गरीबों को वस्त्र आदि देना पुण्य हैं। पुण्य करने से आत्मा को मनुष्य और देव गति में सुख मिलता है। 5.आस्रव तत्त्व-जिस प्रकार तालाब में नाली के द्वारा पानी आतां है, तो उसे आस्रव कहते हैं, उसी प्रकार जिन कारणों से आत्मा में कर्म आता है, उन कारणों को भी जैन धर्म में आस्रव कहते हैं। पाँच इन्द्रियों के भोग-विलास में लगे रहना हिंसा असत्य आदि का आचरण करना, तथा मन, वचन और शरीर को वश 6. संवर तत्त्व-आत्मा पर कर्म-फल को लगाने वाले कारणों को रोक देना संवर है। पाँच इन्द्रियों को वश में रखना अहिंसा, सत्य आदि का आचरण करना, मन, वचन और शरीर को संयम में रखना, इत्यादि संवर है। 7.निर्जरा तत्त्व-आत्मा पर लगे हुए कर्मों को एक-एक करके नष्ट करना 'निर्जरा' कहलाता है। उपवास-व्रत करना, दूसरों की सेवा करना, बड़ों का आदर-सम्मान रखना, ज्ञान की उपासना करना, ध्यान करना, इत्यादि साधनों से कर्मों की निर्जरा होती है। 8. बन्ध तत्त्व-आत्मा पर लगे हुए कर्मों को बन्ध कहते हैं। ये कर्म ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के होते हैं। इन्हीं के कारण आत्मा संसार-चक्र में भटकता है। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) 9.मोक्ष तत्त्व-सब कर्मों को नष्ट करके, जब आत्मा जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छूट जाता है, तब मोक्ष होता है। मोक्ष दशा में न शरीर रहता है, और न शरीर के द्वारा भोगे जाने वाले संसारी सुख-दुःख के भोग ही रहते हैं। उसी समय आत्मा परमात्मा बन जाता है। निर्जरा में कुछ कर्मों का नाश होता है, जबकि मोक्ष में कर्मों का पूर्णतया नाश होता है, यही इन दोनों में भेद है। मोक्ष पाने के लिए तीन रन की उपासना बहुत आवश्यक है। सम्यक दर्शन-वीतराग भगवान की वाणी पर सच्चा विश्वास, सम्यक-ज्ञानजीव, अजीव आदि तत्वों का सच्चा ज्ञान, सम्यक् चरित्र- अहिंसा, सत्य आदि का सच्चा आचरण जैन-धर्म में ये तीन रत्न माने गए हैं। जब उक्त तीनों रत्नों की साधना पूर्ण दशा पर पहुँचती है, तब आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है पहले नहीं। अभ्यास 1. पाप और पुण्य का स्वरूप बताओ। 2. आस्रव और संवर किसे कहते हैं ? 3. निर्जरा और मोक्ष में क्या अन्तर है ? 4. तीन रत्न कौन-से हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 कालकाचार्य मालव देश के अन्तगर्त धारा नाम का एक सुन्दर नगर था। उस नगर का राजा वज्रसिंह था। राजा की पटरानी का नाम सुरसुन्दरी था। सुरसुन्दरी बड़ी सुन्दर और गुणवती थी। अपने धर्म-कर्म में वह बड़ी दृढ़ थी। उसके केवल दो बालक हुए जिनमें एक पुत्र था और दूसरी पुत्री। पुत्र का नाम कालक कुमार रखा गया और पुत्री का नाम सरस्वती। कालक को एक राजकुमार के योग्य सभी शस्त्र और शास्त्रों की शिक्षा दी गई। अल्प-काल में ही राजकुमार कालक सभी विद्याओं में निपुण हो गया। महाराज ने अपनी पुत्री सरस्वती को भी सभी विद्याओं और कलाओं की शिक्षा दिलाई। किन्तु इन भाई-बहन का मन किसी प्रकार भी सांसारिक भोगों में न लग सका। एक दिन कालक कुमार घर बार और राजपाट को त्याग कर जैन मुनि बन गये और तपस्या करने लगे। कुछ समय पश्चात् वे जैन संघ के आचार्य चुन लिये गए। उधर सरस्वती भी गृह त्याग कर साध्वी हो गई और अपने धर्म का पालन करती हुई जगह-जगह विचरने लगी। एक बार आचार्य कालक विहार करते हुए उज्जैन पधारे। साध्वी सरस्वती तब उज्जैन के पास ही विचर रही थीं। जब उन्होंने सुना कि कालकाचार्य उज्जैन पधारे हैं, तो वे भी धर्म-श्रवण के लिए उज्जैन में आ गईं। 49 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) उन दिनों उज्जैन का राजा गर्दभिल्ल था। वह, प्रजापीड़क, स्वार्थी और कामान्ध शासक था। एक बार उसने मार्ग में जाती हुई साध्वी सरस्वती को देख लिया। वह पापी राजा उसके रूप पर मोहित हो गया और उसने साध्वी सरस्वती को जबरदस्ती अपहरण करके अपने महलों में भिजवा दिया। यह समाचार नगर भर में बिजली की तरह फैल गया। इस घटना से सारे नगर में शोक छा गया। आखिर साध्वी को छुड़ाने के लिए नगर के कुछ मुख्य-मुख्य व्यक्ति राजा के पास गए, रोए, गिड़गिड़ाए। किन्तु, उस कामान्ध राजा ने एक न सुनी। उल्टा उन व्यक्तियों को अपमानित करके, बाहर निकाल दिया। बेचारे भेड़ों की तरह नीची गर्दन किए हुए चले आए। कालकाचार्य ने यह सब सुनी तो दंग रह गए। यदि एक साध्वी का अपहरण करने वाले को दण्ड देने की इनमें शक्ति नहीं थी, तो ये सब वह मर क्यों न गए ? इन्हें खाली हाथ लौट आने में लाज न आई ? यह एक सरस्वती की रक्षा का प्रश्न नहीं था। यह तो नारी जाति के गौरव का का प्रश्न था, धर्म की रक्षा का प्रश्न था। यह तो समूचे राष्ट्र और मान्य समाज का अपमान था। तब उन्होंने यह अपमान कैसे सह लिया। वे एक बार स्वयं गर्दभिल्ल को समझाने गए, किन्तु वह न माना। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 51 ) कालकाचार्य दया और क्षमा के भण्डार थे। किन्तु वे इस धर्म के पमान को न सह सके। उनकी नसों में वीर लहू उछलने लगा, उनके मुख र क्षात्र तेज चमक उठा और इस अत्याचार का बदला लेने को तैयार हो पए। __ घूमते हुए वे सिन्धु नदी के तट पर बसे हुए पार्श्वकुल नाम के देशों आ पहुँचे। वहाँ शक राजा राज्य करते थे। कालकाचार्य के कहने से शक जा अपनी सेना सहित उज्जैन पर चढ़ा और कालकाचार्य की चतुरता से दिभिल्ल को परास्त कर दिया। । कालकाचार्य को गर्दभिल्ल से कोई बैर नहीं था, उनको अत्याचार से बैर था। शक गर्दभिल्ल को मार डालना चाहते थे, किन्तु कालकाचार्य ने उसे जीवित छुड़वा दिया, केवल उसे राज्य से ही वंचित करवा दिया। कब उन्होंने साध्वी सरस्वती को उनके चंगुल से मुक्त कराया। बाद में जब शक राजा, प्रजा पर अत्याचार और अन्याय करने लगे, तब एक बार फिर कालकाचार्य का क्षत्रिय-रक्त प्रस्फुरित हो उठा और उन्होंने शकों को हराने में भारतीय जनता का नेतृत्व किया और सफल मार्ग-प्रदर्शन किया। इस कहानी का सारांश यह है, कि हमें धर्म की रक्षा के लिए सदा तैयार रहना चाहिए और अन्याय-अत्याचार को कभी भी सहन नहीं करना चाहिए। अभ्यास 1. कालकाचार्य कौन थे ? 2. गर्दभिल्ल ने क्या अत्याचार किया ? 3. धर्म-रक्षा के लिए क्या करना चाहिए ? Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 भारतवर्ष शिल्प, शास्त्र, कृषिकर्म, कलाकौशल का है जो जन्म-स्थान, जग की जड़ता-तिमिर हटाकर, चमका है जो सूर्य-समान। मानव-जीवन का पृथ्वी पर, जिसने चित्र उतारा है, सब देशों में सभ्य-शिरोमणि, भारतवर्ष हमारा है।। :2: दुःखी देखकर अज्ञ विश्व को, . जिसने ज्ञान-निधान दिया, प्रान्त असभ्यों को भी जिसने, शिक्षित सभ्य महान् किया। मुक्ति-रत्न का देने वाला, जिसने धर्म प्रचारा है, सब देशों का उपदेशक वह, भारतवर्ष हमारा है।। 52 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) शस्य श्यामला धरा सदा थी, षट् ऋतुओं के साथ जहाँ। पारस बँटते रहते थे, . नर-नाथों के हाथ जहाँ। सुरपति ने भी जिसके आगे, आकर हाथ. पसारा है। सब देशों का मौलि-मुकुट यह, भारतवर्ष हमारा है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 एक उदार जैन महिला यह कहानी, खाली कहानी नहीं, आठ सौ वर्ष पूर्व का सच्चा घटिव इतिहास है। जब तक इतिहास जीवित रहेगा, तब तक जैन-समाज के गौरव को अजर-अमर बनाये रखेगा। सारा संसार एक मुख से कहेगा—यदि कोई आदर्श नारी हो, तो ऐसी हो। ___ हाँ, तो कर्णावती नगरी के एक जैन-धर्म स्थानक में कोई परदेश युवक उदास मुँह लिए बैठा था। वह गरीब था, आश्रय की खोज में था। वह श्रद्धा से जैन-धर्म का पालन करने वाला था। __ सौभाग्य से उसी समय वहाँ एक जैन महिला लक्ष्मी बहन, जिसे वहाँ की लोक भाषा में लाछीबाई कहते थे, धर्म-ध्यान करने आ गई। धर्म-ध्यान करके, लक्ष्मी ज्यों ही घर लौटने को हुई, उसकी नजर उस परदेशी पर पड़ी। उसने बड़े प्रेम के साथ धीमे से पूछा- 'भाई ! कहीं बाहर से आये हो क्या ?' 'हाँ , बहन ! मारवाड़ से आया हूँ!' 'अकेले हो ?' 'नहीं, साथ में मेरे बाल-बच्चे भी हैं।' 'यहाँ किसलिए आए हो ?' 'कहीं कोई काम-धन्धा मिल जाए तो करूँ, इस विचार से यहाँ तक आया हूँ।' 54 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) 'अच्छा ऐसी बात है।' परदेशी की बात सुनकर लक्ष्मी तनिक विचार में पड़ गई और फिर बोलो 'तुम्हारा नाम क्या है भाई ?' 'ऊदा' 'कहाँ ठहरो हो ? 'ठहरता कहाँ ? परदेशी आदमी ठहरा। मेरी समझ में नहीं आता, कि कहाँ जाऊँ !' ___चिन्ता न करो भाई ! मेरे साथ चलो। तुम्हारा घर है, ठहरने की क्या फिकर ? कोई बहुत धनी तो हूँ नहीं , पर मुझसे जो बनेगा. सो रूखी-सूखी तम्हें भी जरूर देंगी। . 'ऊदा' इस उदार और भली बहन की बातों को बड़े अचरज के साथ सुनता रहा। जिस देश के लोग एक परदेशी के लिए इतनी बड़ी ममता दिखाते हैं, उस देश के लिए उसके मन में आदर पैदा होने लगा। उसने अपने भाग्य को सराहा कि जो उसे खींचकर मारवाड़ से गुजरात तक ले आया। लक्ष्मी ने ऊदा और उसके बाल-बच्चों को भोजन कराया। और फिर आना एक खाली मकान उसे रहने के लिए दे दिया। वहाँ रहकर ऊदा ने धीर-धीरे अपनी मेहनत और होशियारी से कुछ धन संग्रह कर लिया। कुछ वर्षों बाद लक्ष्मी के जिस घर में वह रह रहा था, उसे गिराकर उसकी जगह एक पक्का घर बनाने का विचार किया। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) लक्ष्मी से पूछा, तो उसने कहा- 'यह घर मैंने तुम्हें दे दिया। अब यह घर तुम्हारा है, जैसा चाहो बना लो।' आखिर पुराना घर गिराया गया और उसकी नींव खोदी जाने लगी। उस नींव में से सोने की मुद्राओं से भरा एक गढ़ा अड़ा निकला। अब प्रश्न यह उठा, कि इस धन का मालिक कौन हो ? ऊदा ने सोचा- 'घर लक्ष्मी का था, उसे क्या मालूम न होगा कि नींव में धन गढ़ा है ? जान पड़ता है, उसे कुछ मालूम नहीं है। अगर मालूम होता, तो वह जरूर इसे निकलवा लेती। परन्तु कुछ भी हो, उसे मालूम हो या न हो, इस घर की मालिक तो वही है। इसलिए मुझे तो यह धन उसी को दे देना चाहिए।' ___ यह सोचकर नींव में से मिले हुऐ सारे धन का लेकर ऊदा लक्ष्मी के पास पहुँचा। लक्ष्मी, लक्ष्मी ही थी। उसने लेने से साफ इन्कार कर दिया और कहा 'भाई क्या पागल हो गए हो ? अब घर मेरा कहाँ है, वह तो मैं तुम्हें दे चुकी थी। अब धन से मुझे क्या वास्ता ? क्या मुझे पाप में डुबोना चाहते हो ?' बहुत आग्रह किया गया, परन्तु लक्ष्मी टस से मस न हुई। उसने उस धन को छुआ तक नहीं, सब-का-सब ऊदा को ही लेना पड़ा। अब क्या था, उस धन के बल पर गरीब ऊदा, ऊदा न रहकर सेठ उदयन बन गया। आगे चलकर यही गुजरात के महामन्त्री उदयन बने। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) लक्ष्मी ! तुम धन्य हो। तूने कितना बड़ा उदार हृदय पाया था ? साधारण स्त्री होकर भी तूने लोभ न किया। एक विदेशी को केवल अपने धर्म-प्रेम के नाते अपना घर दिया, और घर में से निकलने वाली सब सम्पत्ति भी अर्पण कर दी। जैन इतिहास की यह अमर कहानी, विश्व को उदारता का पाठ पढ़ाने के लिए युग-युग तक प्रकाश देती रहेगी। अभ्यास 1. यह कहानी कितनी प्राचीन है ? 2. लक्ष्मी ने कौन-सा बड़ा काम किया ? 3. सारी कहानी जबानी सुनाओ ? Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 नेमिनाथ और राजुल __ जूनागढ़ के राजा उग्रसेन थे, जिनकी पुत्री का नाम राजीमती था। राजीमती को प्यार से राजुल भी कहते थे। वह बहुत सुन्दर और चतुर राजकुमारी थी। उसका विनाह, द्वारिका के यादव-वंशी राजकुमार श्री नेमिकुमार के साथ होना निश्चित हुआ था। श्री नेमिकुमार, राजा समुद्रविजय के पुत्र थे। उनकी माता का नाम शिवादेवी था। श्रीकृष्ण वासुदेव के ताऊ के लड़के थे, अत: श्रीकृष्ण के भाई थे। श्री नेमिकुमार रथ में बैठकर बारात के साथ उग्रसेन के द्वार पर तोरण के लिए जा रहे थे। जब रथ राजमहल के पास पहुँचा तो उन्होंने बाड़े में करुण स्वर से चिल्लाते हुए बन्द दीन पशुओं को देखा। उन्हें बन्धन में देखकर उनके मन में बड़ी दया उत्पन्न हुई। श्री नेमिकुमार ने सारथी से पूछा- “यह पशुओं का समूह एक ही जगह किसलिए इकट्ठा किया गया है ?'' सारथी ने कहा- "आपके विवाह महोत्सव पर मारने के लिए इन पशुओं को इकट्ठा किया गया है। आखिर यह बारात है। इसमें बहुत से अतिथि माँसाहारी भी तो आए हुए सारथी की बात सुनकर श्री नेमिकुमार चिन्तित हो गए ! उनके कोमल मन में दया का सागर लहरा उठा। वे विचारने लगे कि - "ये पशु वन में 58 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) रहते हैं, घास खाते हैं और किसी का अपराध नहीं करते। इन दीन पशुओं को मेरे विवाह के लिए मारा जाता है ! कितना भयंकर अनर्थ है।'' इस प्रकार विचार करने पर उनको वैराग्य हो गया। उन्होंने आज्ञा देकर सब पशु छुड़वा दिए और आभूषण वगैरह उतार कर सारथी को उपहार में दे दिये। श्रीकृष्णचन्द्र आदि ने बहुत समझाया, परन्तु श्री नेमिकुमार न माने और दीक्षा धारण कर, साधना करने के लिए निरनार पर्वत पर चले गये, वहाँ उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। अब जरा राजुल की बात भी मालूम कीजिए। जब श्री नेमिनाथ की बारात आ रही थी, तो राजीमती अपने महल के झरोखे में बैठी हुई बारात का आगमन देख रही थी। ज्योंही उसने श्री नेमिकुमार के रथ को वापस लौटते हुए देखा और वास्तविक सत्य मालूम हुआ, तो वह एकदम बेहोश हो गई। जब होश में आई, तो जोर-जोर से रोने लगी। राजा उग्रसेन और राजुल की माता ने बहुत समझाया कि— “यदि श्री नेमिकुमार वैरागी हो गये हैं, तो क्या हुआ ? अभी उनके साथ तेर विवाह तो हुआ ही नहीं है। किसी दूसरे सुन्दर राजकुमार के साथ तेर विवाह कर दिया जायगा।'' माता-पिता की इन बातों से उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने कहा- 'में पति तो श्री नेमिकुमार ही हैं। उनके सिवा सब मेरे पिता, पुत्र और भा ___ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) के समान हैं। मुझे अब विवाह करना ही नहीं है। मैं तो श्री नेमिकुमार भगवान् के संघ में दीक्षा धारणकर साध्वी बनूँगी, उन्हीं के चरण-चिह्नों पर चलूँगी।" भगवान् नेमिनाथ जी के दर्शन करने के लिए राजुल गिरनार पर्वत पर जा रही थी। मार्ग में बड़े जोर से वर्षा होने लगी। राजुल वर्षा से बचने के लिए भीगती हुई, पास ही की एक गुफा में पहुँच गई। वहाँ श्री नेमिनाथ जी के भाई रथनेमिमुनि ध्यान लगाकर खड़े हुए थे । राजुल के रूप को देखकर वे मोहित हो गए और उसे वापस घर चलकर अपने साथ विवाह कर लेने के लिए कहा। राजीमती ने बड़े गम्भीर विचारों के द्वारा रथनेमि को समझाया और कहा--"यह तुम क्या कह रहे हो ? संसार के भोग-विलासों को त्यागकर मुनि बने हो और फिर उन्हीं वमन किये हुए भोगों को ग्रहण करना चाहते हो ? इस पतित जीवन से तो मर जाना कहीं अच्छा है। मुझसे इस बात की आशा न रखो। तुम तो क्या, स्वयं इन्द्र भी आकर प्रार्थना करे, तो मैं उसे भी घृणा - पूर्वक ठुकरा दूँगी।" राजीमती के प्रवचन का रथनेमि पर बड़ा प्रभाव पड़ा। वह अपनी दुर्बलता पर पछताने लगा । वह जिस संयम मार्ग से भ्रष्ट हो रहा था, पुनः उस पर दृढ़ता के साथ आरूढ़ हो गया । राजीमती को धन्य है कि वह स्वयं तो दृढ़ रही ही, साथ ही डिगते हुए रथनेमि को भी धर्म में स्थिर कर दिया। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 61 ) राजीमती भगवान् नेमिनाथ जी के चरणों में संयम धारण कर साध्वी बन गई। उसने बहुत बड़ी कठोर और उत्कृष्ट तपः साधना की । संयम की, ध्यान की साधना ज्यों ही उच्च दशा पर पहुँची, त्यों ही राजीमती को केवल - ज्ञान प्राप्त हुआ। वह समस्त कर्म-बन्धनों का सदा काल के लिए नष्ट कर, जन्म-मरण को नष्ट कर मोक्ष में जाकर विराजमान हो गई। वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्ति हो गई। अभ्यास 1. राजीमती किसकी पुत्री थी ? 2. नेमिनाथ ने विवाह क्यों नहीं किया ? 3. रथनेमि के साथ राजीमती की क्या बात हुई ? Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 भगवान् का भजन शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जैसे प्रतिदिन खाना, काम करना, भ्रमण करना आदि आवश्यक है, वैसे ही .मन को पवित्र तथा निर्मल रखने के लिए नित्य प्रति भगवान् का भजन करना अतीव आवश्यक है। - भगवान् का भजन करने से मन साफ होता है। मन साफ होने से उसमें अच्छे विचार पैदा होते हैं। अच्छे विचार पैदा होने से अच्छे काम होते हैं। अच्छे काम होने से संसार के अन्दर इज्जत मिलती है और साथ ही धर्म का लाभ होता है। भगवान् का भजन हमारी आत्मा को शुद्ध बनाता है। यह एक अटल नियम है, कि जो आदमी जैसा ध्यान करता है, वह वैसा ही बन जाता है। चोर का ध्यान करने से मनुष्य चोर बन जाता है और साहूकार का ध्यान करने से साहूकार। पापी का ध्यान आदमी को पापी बनाता है और धर्मात्मा का ध्यान धर्मात्मा। भगवान् का ध्यान भक्त को भगवान् बनाता है। मनुष्य के मन पर संकल्प का बड़ा प्रभाव पड़ता है। संसार में जितने भी छोटे-बड़े सभ्य मनुष्य हैं, वे प्राय: सभी भगवान् का नित्य भजन किया करते हैं। छोट-से-छोटे और बड़े-से बड़े प्रत्येक 62 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) मनुष्य का कर्तव्य है, कि वह प्रात:काल उठकर सबसे पहले भगवान् का भजन करे, बाद में और कुछ करे। जैन-धर्म में सच्चे देव का बहुत महत्व है। वीतराग देव ही हमारे भगवान् हैं। वीतराग की उपासना साधक को वीतराग बनाती है। वीतराग का अर्थ है— 'राग और द्वेष रहित होना।' जैन-धर्म का नवकार मन्त्र, वीतराग भगवान् का भजन करने के लिए सबसे अच्छा मन्त्र है। इसलिए प्रात:काल उठकर एक सौ आठ बार, अथवा कम-से-कम सत्ताइस बार नवकार मन्त्र का जप करना चाहिए। नवकार मन्त्र के जप के बाद कोई सरल-सा-स्तोत्र बड़े मधुर कण्ठ से पढ़ना चाहिए, जिससे तुम्हें भी आनन्द मिले और सुनने वालों को भी। प्यारे बालको, भगवान् का भजन करना कभी मत भूलो। जब तक भगवान् का भजन न कर लो, तब तक कुछ न खाओ। बाहर के खाने की अपेक्षा, आनी आत्मा के लिए अन्दर की यह खुराक बहुत जरूरी है। अभ्यास 1. भगवान् के भजन से क्या लाभ है ? 2. ध्यान के सम्बन्ध में तुम क्या समझते हो ? 3. जैन-धर्म में सच्चे देव कौन होते हैं ? 4. वीतराग का क्या अर्थ है ? Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रसन्त उपाध्याय कविश्री जी महाराज द्वारा लिखित जैन बाल-शिक्षा चार भाग बाल विद्यालयों में नन्ने-मुन्ने बच्चों के लिए धार्मिक शिक्षा हेतु बहुत ही उपयोगी पुस्तकें हैं। भारत के अनेक प्रांतों के स्कूलों की कक्षाओं में इन पुस्तकों को नैतिक शिक्षा के साथ पढ़ाया जाता है। आप भी अपने बच्चों के लिए एवं पाठशालाओं के लिए उपरोक्त पुस्तकों को मांगकर अपने बच्चों के नैतिक जीवन का विकास करें। भारत भूषण जैन (साहित्यरत्न) व्यवस्थापक जैन बाल शिक्षा 2. जैन बाल शिक्षा 3. जैन बाल शिक्षा 4. जैन बाल शिक्षा भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 सन्म नपातसाग Far Private & Personal use only