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4. पुण्य तत्त्व-भूखों को भोजन देना, प्यासों को पानी पिलाना, धर्मशाला बनाना, गरीबों को वस्त्र आदि देना पुण्य हैं। पुण्य करने से आत्मा को मनुष्य और देव गति में सुख मिलता है।
5.आस्रव तत्त्व-जिस प्रकार तालाब में नाली के द्वारा पानी आतां है, तो उसे आस्रव कहते हैं, उसी प्रकार जिन कारणों से आत्मा में कर्म आता है, उन कारणों को भी जैन धर्म में आस्रव कहते हैं। पाँच इन्द्रियों के भोग-विलास में लगे रहना हिंसा असत्य आदि का आचरण करना, तथा मन, वचन और शरीर को वश
6. संवर तत्त्व-आत्मा पर कर्म-फल को लगाने वाले कारणों को रोक देना संवर है। पाँच इन्द्रियों को वश में रखना अहिंसा, सत्य आदि का आचरण करना, मन, वचन और शरीर को संयम में रखना, इत्यादि संवर
है।
7.निर्जरा तत्त्व-आत्मा पर लगे हुए कर्मों को एक-एक करके नष्ट करना 'निर्जरा' कहलाता है। उपवास-व्रत करना, दूसरों की सेवा करना, बड़ों का आदर-सम्मान रखना, ज्ञान की उपासना करना, ध्यान करना, इत्यादि साधनों से कर्मों की निर्जरा होती है।
8. बन्ध तत्त्व-आत्मा पर लगे हुए कर्मों को बन्ध कहते हैं। ये कर्म ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के होते हैं। इन्हीं के कारण आत्मा संसार-चक्र में भटकता है।
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