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( 59 ) रहते हैं, घास खाते हैं और किसी का अपराध नहीं करते। इन दीन पशुओं को मेरे विवाह के लिए मारा जाता है ! कितना भयंकर अनर्थ है।''
इस प्रकार विचार करने पर उनको वैराग्य हो गया। उन्होंने आज्ञा देकर सब पशु छुड़वा दिए और आभूषण वगैरह उतार कर सारथी को उपहार में दे दिये। श्रीकृष्णचन्द्र आदि ने बहुत समझाया, परन्तु श्री नेमिकुमार न माने और दीक्षा धारण कर, साधना करने के लिए निरनार पर्वत पर चले गये, वहाँ उन्हें केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ।
अब जरा राजुल की बात भी मालूम कीजिए। जब श्री नेमिनाथ की बारात आ रही थी, तो राजीमती अपने महल के झरोखे में बैठी हुई बारात का आगमन देख रही थी। ज्योंही उसने श्री नेमिकुमार के रथ को वापस लौटते हुए देखा और वास्तविक सत्य मालूम हुआ, तो वह एकदम बेहोश हो गई। जब होश में आई, तो जोर-जोर से रोने लगी।
राजा उग्रसेन और राजुल की माता ने बहुत समझाया कि— “यदि श्री नेमिकुमार वैरागी हो गये हैं, तो क्या हुआ ? अभी उनके साथ तेर विवाह तो हुआ ही नहीं है। किसी दूसरे सुन्दर राजकुमार के साथ तेर विवाह कर दिया जायगा।''
माता-पिता की इन बातों से उसे बड़ा दुःख हुआ। उसने कहा- 'में पति तो श्री नेमिकुमार ही हैं। उनके सिवा सब मेरे पिता, पुत्र और भा
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