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एक समय की बात है-सेठजी तीन-चार दिन के लिए गाँव गये हुए थे। पीछे से मूला ने चन्दनबाला के पैरों में बेड़ी डालकर उसे तलघर में बन्द कर दिया और खुद अपने पीहर चली गई। चन्दनबाला तीन दिन तक भूखी-प्यासी तलघर में बन्द रही। वह इस दुःख में भी भगवान् का ध्यान करती रही। मूला पर थोड़ा-सा भी रोष न किया। 'यह सब मेरे पिछले बाँधे हुए कर्मों का फल है'-यही विचारती रही।
चौथे दिन सेठजी गाँव से वापस घर को लौटे। चन्दनबाला की यह दशा देखकर उनको बड़ा ही दुःख हुआ। सेठजी ने बड़े प्रेम से उसे तहखाने से बाहर निकाला। वह तहखाने की चौखट पर आकर बैठ गई। तीन दिन तक तप ही रहा था, अत: भूख से व्याकुल थी। सेठजी ने इधर-उधर बहुत कुछ देखा, जब कुछ भी खाने को न मिला तो पशुओं के लिए पकाए हुए उड़द के बाकले ही लोहे के छाज में डाल कर दे दिए और खुद बेड़ी तुड़वाने के लिए लुहार को बुलाने चले गए।
- चन्दनबाला उड़द के बाकलों को ठण्डा कर रही थी और भावना भा रही थी- 'आज मेरे तेले का पारणा है। अत: किसी पवित्र अतिथि को भोजन देकर ही पारणा करूँ, तो कितना अच्छा हो !'' वह यह विचार कर ही रही थी कि इतने में भगवान् महावीर स्वामी पधारे।
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