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कालकाचार्य मालव देश के अन्तगर्त धारा नाम का एक सुन्दर नगर था। उस नगर का राजा वज्रसिंह था। राजा की पटरानी का नाम सुरसुन्दरी था। सुरसुन्दरी बड़ी सुन्दर और गुणवती थी। अपने धर्म-कर्म में वह बड़ी दृढ़ थी। उसके केवल दो बालक हुए जिनमें एक पुत्र था और दूसरी पुत्री। पुत्र का नाम कालक कुमार रखा गया और पुत्री का नाम सरस्वती। कालक को एक राजकुमार के योग्य सभी शस्त्र और शास्त्रों की शिक्षा दी गई। अल्प-काल में ही राजकुमार कालक सभी विद्याओं में निपुण हो गया। महाराज ने अपनी पुत्री सरस्वती को भी सभी विद्याओं और कलाओं की शिक्षा दिलाई।
किन्तु इन भाई-बहन का मन किसी प्रकार भी सांसारिक भोगों में न लग सका। एक दिन कालक कुमार घर बार और राजपाट को त्याग कर जैन मुनि बन गये और तपस्या करने लगे। कुछ समय पश्चात् वे जैन संघ के आचार्य चुन लिये गए। उधर सरस्वती भी गृह त्याग कर साध्वी हो गई और अपने धर्म का पालन करती हुई जगह-जगह विचरने लगी। एक बार आचार्य कालक विहार करते हुए उज्जैन पधारे। साध्वी सरस्वती तब उज्जैन के पास ही विचर रही थीं। जब उन्होंने सुना कि कालकाचार्य उज्जैन पधारे हैं, तो वे भी धर्म-श्रवण के लिए उज्जैन में आ गईं।
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