Book Title: Jain Bal Shiksha
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ ( 55 ) 'अच्छा ऐसी बात है।' परदेशी की बात सुनकर लक्ष्मी तनिक विचार में पड़ गई और फिर बोलो 'तुम्हारा नाम क्या है भाई ?' 'ऊदा' 'कहाँ ठहरो हो ? 'ठहरता कहाँ ? परदेशी आदमी ठहरा। मेरी समझ में नहीं आता, कि कहाँ जाऊँ !' ___चिन्ता न करो भाई ! मेरे साथ चलो। तुम्हारा घर है, ठहरने की क्या फिकर ? कोई बहुत धनी तो हूँ नहीं , पर मुझसे जो बनेगा. सो रूखी-सूखी तम्हें भी जरूर देंगी। . 'ऊदा' इस उदार और भली बहन की बातों को बड़े अचरज के साथ सुनता रहा। जिस देश के लोग एक परदेशी के लिए इतनी बड़ी ममता दिखाते हैं, उस देश के लिए उसके मन में आदर पैदा होने लगा। उसने अपने भाग्य को सराहा कि जो उसे खींचकर मारवाड़ से गुजरात तक ले आया। लक्ष्मी ने ऊदा और उसके बाल-बच्चों को भोजन कराया। और फिर आना एक खाली मकान उसे रहने के लिए दे दिया। वहाँ रहकर ऊदा ने धीर-धीरे अपनी मेहनत और होशियारी से कुछ धन संग्रह कर लिया। कुछ वर्षों बाद लक्ष्मी के जिस घर में वह रह रहा था, उसे गिराकर उसकी जगह एक पक्का घर बनाने का विचार किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70