Book Title: Jain Bal Shiksha
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 51
________________ 18 नव तत्त्व जैन-धर्म संसार में कुल नव तत्व मानता है। इनमें दो तत्त्व-जीव और अजीव, जो प्रारम्भ के हैं, मूल तत्व हैं। बाकी के सात तत्व उन दोनों तत्वों के मिलने-बिछुड़ने के ही रूप हैं। अन्तिम मोक्ष तत्व आत्मा का आपना शुद्ध स्वरूप है। ___1. जीव तत्त्व-जीव आत्मा को कहते हैं। ये आत्माएँ अनन्त हैं। जब तक आत्मा कर्मों से बँधी है, तब तक नरक तिर्यंच, मनुष्य और देव गति में घूमता रहता है और जब वह कर्म से अलग होकर शुद्ध हो जाता है, तब भगवान् बन जाता है, मोक्ष पा लेता है। 2.अजीव तत्त्व-जो जीव न हो, जड़ हो, उसे अजीव कहते हैं। अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, उसे रूपी कहते हैं; जैसे—पृथ्वी जल, अग्नि आदि के परमाणु आदि। अरूपी उसे कहते हैं जिसमें उपर्युक्त रूप, रस आदि न हों; जैसे—आकाश, काल आदि आत्मा पर लगने वाले कर्म भी रूपी अजीव 3. पाप तत्त्व-हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार और क्रोध मान,माया, लोभ आदि पाप हैं। इनके करने से आत्मा नरक आदि गतियों में दुःख पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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