________________
तत्त्वमीमांसा
93
। भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक अवधारणाओं में संशोधन/परिवर्धन किया था।' किंतु तत्त्व-विवेचन पार्श्वनाथ की परम्परा जैसा ही था यह विद्वानों का अभिमत है। भगवती में प्राप्त लोक का विवेचन इसी अभिमत की पुष्टि कर रहा है। पार्श्वनाथ के शिष्य भगवान् महावीर के पास आकर लोक के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। भगवान् महावीर लोक सम्बन्धी अवधारणा को भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित कहकर लोक सम्बन्धी उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। इससेफलित होता है भगवान् पार्श्व एवं भगवान् महावीर की लोक सम्बन्धी अवधारणा समान थी। लोककी अवस्थिति
यह दृश्यमान जगत् किस पर ठहरा हुआ है। पुराणों में शेषनाग, कच्छप आदि पर यह विश्व अवस्थित है ऐसी विभिन्न अवधारणाएं हैं। जैन दर्शन ने भी इस समस्या पर विचार किया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं
1. वायु आकाश पर स्थित है। 2. समुद्र वायु पर अवस्थित है। 3. पृथ्वी समुद्र पर स्थित है। 4. त्रस-स्थावर जीव पृथ्वी पर स्थित हैं। 5. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। 6. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। 7. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। 8. जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं।
लोक स्थिति के संदर्भ में एक प्रश्न उभरता है कि आकाश किस पर प्रतिष्ठित है? इसका समाधान दिया गया है कि आकाश स्वप्रतिष्ठित है। आकाश भी यदि अन्य तत्त्व पर प्रतिष्ठित होता तो फिर प्रश्न होता वह तत्त्व किस पर प्रतिष्ठित है, इस प्रकार अनवस्था दोष उपस्थित हो जाता अवगाह देना आकाश का स्वधर्म है, अतः उसकी प्रतिष्ठा में अन्य तत्त्व की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। स्व के संदर्भ में आकाश अवगाहक एवं अवगाह्य दोनों बन जाता है। आकाश, वायु, जल और पृथ्वी-ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है। संसारी जीव और अजीव (पुद्गल) में आधार-आधेय और संग्राह्य संग्राहक भाव ये दोनों हैं। जीव आधार है और शरीर उसका आधेय। कर्म संसारी जीव का आधार और संसारी जीव उसका आधेय है। 1. उत्तराध्ययन (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1993) 2 3 वां अध्ययन 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/2 5 5, .......पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं सासए लोए बुइए। 3. (क) वही, 1 / 310
(ख) ठाणं, 8/14 4. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org