Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 299
________________ आचार मीमांसा 279 है। अहिंसा की अनुपालना ज्ञानपूर्वक ही सम्भव है। जैनागम इस तथ्य से भलीभांति अवगत थे तथा पुरजोर इस सिद्धांत को उच्चरित भी कर रहे थे-"जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा"। अर्थात् अज्ञानी के लिए संयम का आचरण भी संभव नहीं है। पहले यह ज्ञान कर लेना आवश्यक है कि जीव क्या है ? अजीव क्या है? यह जानने के बाद ही अहिंसा की अनुपालना सरलता एवं सहजतासे हो सकती है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय ही परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष की प्राप्ति न केवल ज्ञान से हो सकती है और न ही कोरे आचरण से। दोनों की युति अत्यन्त अपेक्षित है। ज्ञान का फलित अहिंसा वही ज्ञान सम्यक् होता है जिसकी पूर्णताअहिंसा में हो। जिस ज्ञान से हिंसा की उत्प्रेरणा मिलती हो, हिंसा की साधन-सामग्री विकसित होती हो, वह ज्ञान नहीं, ज्ञानाभास है। संसार परिभ्रमण का हेतु है। वास्तविक ज्ञानी तो वही है जो समता एवं अहिंसा की अनुपालना करता है। सूत्रकृतांग में कहा है-"ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है। इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि ज्ञान का सार अहिंसा है। अहिंसा ही परम आचार है। यह समता के आधार पर विकसित होती है। जैसे मुझे दु:ख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को दु:ख अप्रिय है। इस समता का अनुभव जितना विकसित होता है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है। सब प्राणियों को आत्मवत् समझना अहिंसा की पराकाष्ठा है। जैन परम्परा में आचारांगको आचार-शास्त्र की दृष्टि से मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। आचारांग आत्म-जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है और आत्म जिज्ञासा ही आचार शास्त्र का आधारभूत तत्त्व है। भगवान् महावीर ने जिस अहिंसात्मक जीवन शैली का निरूपण किया उसका आधार आत्मा है। जिसका आत्मा में विश्वास है उसका अहिंसा में विश्वास है। आत्माद्वैत की स्वीकृति जैन-दर्शन जीव एवं पुद्गल दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है । तथा आत्मा की अनेकता भी उसे मान्य है। अनन्त आत्माओं का पृथक्-पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व भी है। वे किसी परम सत्ता का अंश नहीं है। आत्म-नानात्व की स्वीकृति के बावजूद अहिंसा के प्रसंग में आचारांग आत्माद्वैत का प्रतिपादन करता है। हिंस्य एवं हिंसक में एकता का प्रतिपादन कर वह अहिंसा की शाश्वत प्रतिष्ठा करना चाहता है। क्रूरता स्व के प्रति नहीं होती पर के प्रति होती है, जब पर कोई है ही नहीं तब क्रूरता का प्रादुर्भाव भी नहीं हो सकता। जिसको तूं मारना 1. दशवकालिक, 4/12, जो जीवे विन याणाइ, अजीवे विन याणई। जीवाजीवे अयाणतो कहं सोनाहिइ संजमं ।। 2. सूयगडो, 1/1/8 5, एयं खुणाणिणो सारं जंण हिंसइ कंचणं। अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया॥ 3. आयारो, 2/63.सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा। 4. ठाणं, 2/। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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