Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 322
________________ 302 सूत्रकृतांग में आगत तथ्यों का आकलन करने से ज्ञात होता है कि सूत्रकार मुख्यतः आत्मवाद, कर्मवाद एवं सृष्टिवाद के सिद्धान्तों को केन्द्र में रखकर दार्शनिक विचारों की समीक्षा कर रहे हैं । हमने पूर्व में आत्मा संबंधी विचारधाराओं का विश्लेषण किया था अब कर्म के पक्ष-विपक्ष में प्रस्तुत विचारों का वर्णन काम्य है । नियतिवाद जैन आगम में दर्शन नियतिवाद आत्मा की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। आत्मा का पुनर्जन्म मानता है । आत्मा को सुख - दुःख की अनुभूति होती है । वह आत्मा के सुख-दुःख को स्वकृत या परकृत नहीं मानता है अपितु नियतिकृत मानता है। दुःख स्वकृत या परकृत नहीं होते । निर्वाण का सुख एवं संसार के सुख-दुःख भी स्वकृत या परकृत नहीं है अपितु वे नियतिकृत हैं। सभी जीवन स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं और न अन्यकृत सुख - दुःख का वेदन करते हैं । प्राणियों का सुख - दुःख नियतिजनित है । ' नियतिवाद के अनुसार बल, वीर्य, पुरुष पराक्रम आदि सब निरर्थक हैं। सारे जीव अवश, अबल, अवीर्य हैं। नियति के द्वारा ही वे छह अभिजातियों में सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ।' नियतिवाद आजीवक सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धान्त रहा है। इसके प्रवक्ता मंखलि गोशालक है। जैन आगम साहित्य एवं बौद्ध ग्रन्थों में इसका बहुलता से उल्लेख है । महावीर एवं बुद्ध के काल में यह एक शक्तिशाली विचारधारा थी किंतु काल के प्रवाह में लुप्तप्राय: हो गई । संभवत: इसका समावेश निर्ग्रन्थ धारा में हो गया क्योंकि इसका आचार एवं अधिकांश विचार इस धारा के समान ही थे अत: यह सम्भावना की जा सकती है। नियतिवाद में सुख-दुःख के बंधन, संवेदन एवं प्राणियों की विशुद्धि के संदर्भ में नियति को प्रस्तुत किया गया है। अर्थात् पाप-पुण्य का बन्धन, संवेदन, प्राणियों की विशुद्धि के लिए कोई हेतु या कारण नहीं है वे नियति द्वारा स्वत: होते रहते हैं । उनमें व्यक्ति का पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता । सूत्रकृतांग तथा दीघनिकाय के वर्णन को पढ़ने से ज्ञात होता है कि नियतिवादी कर्म, कर्मफल आदि की मुख्य रूप से चर्चा करते हैं एवं उनको नियतिकृत मानते हैं । नियतिवाद के अनुसार व्रत, तप, ब्रह्मचर्य आदि आचारात्मक साधना का कोई प्रयोजन नहीं है।' क्योंकि उनके द्वारा किसी भी प्रकार का कहीं भी परिवर्तन एवं परिवर्धन नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन सर्वथा नियतिवादी नहीं है। वह पुरुषार्थ को प्रधानता देता है। आगम साहित्य 1. सूयगडो, 1 / 1 / 29,30 2. दीघनिकाय (सामञ्ञफलसुत्तं । 9 ) पृ. 47 नत्थि बलं नत्थि विरियं. नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुख - दुःखं पटिसंवेदेन्ति । Jain Education International 3. (क) सूयगडो, 1/1/29-30 (ख) दीघनिकाय, पृ. 47 (सामञ्ञफलसुत्तं) नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय । अहेतु अपच्चया सत्ता सङ्किलिस्सन्ति । नत्थि हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया । 4. वही, पृ. 47 For Private & Personal Use Only .सव्वे जीवा अवशा अबला अविरिया www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346