Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 324
________________ 304 जैन आगम में दर्शन छिन्न हो जाता है अथवा सूखी भीत पर गिरने वाली धूल की भांति तत्काल नीचे गिर जाता है। उसका विपाक नहीं होता।' जैन दर्शन के अनुसार वीतराग अवस्था को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की अवस्थाओं में कर्म का उपचय होता है। भले फिर वह कार्य कोरा मन से किया हो अथवा अजानकारी में काया आदि से किया हो। उसके साथ प्रमाद जुड़ा है तो कर्म का उपचय तो अवश्यंभावी है। वीतराग के भी ईयापथिकी क्रिया से कर्म का बन्ध माना गया है। वह द्विसामयिक होता है पहले समय में बंधता है दूसरे समय में भोग लिया जाता है तथा वीतराग के मात्र सातवेदनीय कर्म का ही बंध होता है। वीतराग का यह कर्मबंध एक प्रकार से अबंध जैसा ही है। कर्मसिद्धान्त जैन दर्शन का मुख्य विमर्शनीय विषय रहा है, जिसकी चर्चा हम 'कर्मवाद' नामक अध्याय में विस्तार से कर चुके हैं। प्रस्तुत प्रसंग में यह विशेष ध्यातव्य है कि सुखदु:ख एवं उनके फलभोग की व्यवस्था नियतिकृत नहीं है तथा कर्मका बंध राग-द्वेष की अवस्था में अवश्य ही होता है भले वह कर्म अजानकारी में किया हो, या मात्र मन से संकल्पित हो अथवा काया से किया हो। सृष्टि की समस्या । सृष्टि की उत्पत्तिका प्रश्न सभी दार्शनिकों की चिंता का विषय रहा है। भारतीय दार्शनिकों ने इस प्रश्न का समाधान विभिन्न प्रकारा से देने का प्रयत्न किया है। सूत्रकृतांग में पूर्वपक्ष के रूप में सृष्टि से सम्बन्धित अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। जिनकी संक्षिस जानकारी प्रस्तुत की जा रही है। __सृष्टिवाद के विविध पक्षों का निरूपण वैदिक और श्रमण साहित्य में प्राप्त है। सूत्रकृतांग में वर्णित सृष्टि विषयक मन्तव्यों का आधार उस साहित्य में खोजा जा सकता है। अण्डकृत सृष्टि __ ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सृष्टि की उत्पत्ति से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं जिनमें यह प्रश्न उठाया गया है कि सृष्टि का आधार क्या है ? उपादान कारण क्या हैं ? तथा निमित्तकारण क्या हैं ? यहां द्यौ तथा पृथिवी के उत्पन्न करने वाले देव को विश्वकर्मा कहा गया है। जिसका चक्षु, मुख, बाहु और पांव सभी ओर हैं अर्थात् जो सर्वव्यापक है। विश्वकर्मा के इस 1. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 30, कम्मं चयं न गच्छति, चतुविधं भिक्खुसमयम्मि। (ख) इस संदर्भ में सूत्रकृतांग के टिप्पण (पृ. 52-54) में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जो द्रष्टव्य है। (ग) बौद्धों के इस कर्मोपचय सिद्धान्त का विकसित रूप अभिधम्मकोश में प्राप्त है, जिसकी विस्तार से चर्चा तत्त्वार्थटीकाकार सिद्धसेन ने की है। पं. सुखलालजी ने ज्ञानबिन्दु की प्रस्तावना (पृ. 30) तथा मुनि जम्बूविजयजीने सूत्रकृतांग की प्रस्तावना (पृ. 10-12) में यह चर्चा प्रस्तुत की है। 2. ऋग्वेद 10/81/2, 4 3. वही, 10/81/3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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