Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 323
________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन में यह सत्य अनेक स्थलों पर अभिव्यंजित हुआ है । सूत्रकृतांग ने नियतिवाद को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है इससे फलित होता है कि जैन दर्शन नियतिवादी नहीं है । वह कर्म एवं कर्मफल को स्वकृत मानता है । आचारांग के प्रारम्भ में ही कर्मवाद की मान्यता है ।' भगवती में उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम' को मान्यता प्रदान कर नियतिवाद की अवधारणा को निराकृत किया गया है। अज्ञानवाद का उल्लेख चार समवसरण के प्रसंग में कर दिया गया है। कर्मोपचय कर्म का बंध मन, वचन एवं काया इन तीनों की प्रवृत्ति से होता है, अथवा किसी एक से होता है अथवा इनमें से किसी एक से मुख्य रूप से होता है, इत्यादि प्रश्न दार्शनिकों के मध्य विमर्श के विषय रहे हैं । बौद्ध दर्शन में कर्म - उपचय के संदर्भ में मन की प्रवृत्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है। हिंसा - अहिंसा के संदर्भ में प्रस्तुत बौद्ध की अवधारणा से कर्म उपचय के सिद्धान्त की स्पष्टता हो जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार - (1) सत्त्व है (2) सत्त्व संज्ञा है (3) मारने का चिंतन है और (4) प्राणी मर जाता है - इन चारों का योग होने पर हिंसा होती है, हिंसा से होने वाले कर्म का उपचय होता है। ' सूत्रकृतांग ने बौद्ध मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जो जीव को जानता हुआ काया से उसे नहीं मारता अथवा अनजान में किसी को मारता है उसके अव्यक्त पाप का स्पर्श होता है। उसी क्षण उसका वेदन हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्षीण होकर पृथक् हो जाता है।' सूत्रकृतांग नियुक्ति ने इस मत की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि चार प्रकार की परिस्थितियों में कर्मबन्ध नहीं होता है 1. परिज्ञोपचित- केवल मन से पर्यालोचन करने से किसी प्राणी का वध नहीं होता इसलिए उससे हिंसा - जनित कर्म का चय नहीं होता । अविज्ञोपचित-अनजान में प्राणी का वध हो जाने पर भी हिंसाजनित कर्म का चय नहीं होता । 3. ईर्यापथ - चलते समय कोई जीव मर जाता है, उससे भी हिंसाजनित कर्म का चय नहीं होता, क्योंकि उसकी मारने की अभिसंधि नहीं होती । स्वप्नान्तिक-स्वप्न में जीव-वध हो जाने पर भी हिंसा - जनित कर्म का चय नहीं होता । इन चारों से मात्र कर्म का स्पर्श होता है जो सूक्ष्म तन्तु के बंधन की भांति तत्काल 3. 2. 4. 303 1. आयारो, 1/4 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1 / 146, एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइवा । Jacobi, Herman, Jaina Sutra Part II Introduction P. XVI......... The sins of mind the mind are heaviest, as the Buddha teaches......... 4. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 48-49, उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च संचिंत्य जीवितात् व्यपरोपणं प्राणातिपातः । 5. सूयगडो, 1 / 1 /52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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