Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 314
________________ 294 जैन आगम में दर्शन वर्तमान में चार्वाक या बृहस्पति के सिद्धान्त-सूत्र मिलते हैं। उनमें पृथिवी, अप, तेज और वायु इन चार भूतों का ही उल्लेख है।' आगमयुग में पंचभूतवादी थे। दर्शनयुगीन साहित्य में चार्वाक सम्मत चार भूतों का ही उल्लेख प्राप्त है किंतु सूत्रकृतांग केटीकाकाल तक पंचभूतों का भी उल्लेख है। वहां आकाश को भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञेय माना है। कालान्तर में जब आकाश का प्रत्यक्ष प्रमाण से शेयत्व निषिद्ध हो गया, संभवत: तब से ही चार्वाक पंचभूत से चार भूत की अवधारणा वाला हो गया । वृत्तिकार ने एक स्थान पर यह उल्लेख भी किया है कि कुछ लोकायतिक आकाश को भी भूत मानते हैं। इसलिए भूतपंचक कहना दोषपूर्ण नहीं है, इस वक्तव्य से स्पष्ट हो रहा है कि अधिकांश भूतवादी चार भूतों को मानने के पक्ष में हो चुके थे। भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और भूतों का विनाश होने पर चैतन्य विनष्ट हो जाता है। यह अनात्मवादियों का सामान्य सिद्धान्त है तथा यह अति प्राचीन अभिमत है। पांच भूतों से भिन्न आत्मा का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। सूत्रकृतांग में आगत इस अभिमत की तुलना पं. दलसुख मालवणिया ने दीघनिकायगत अजितकेशकम्बल के मन्तव्य से की है।' पुरुष अर्थात् आत्मा चार महाभूतों से उत्पन्न है।' आकाश नामक भूत भी इसे मान्य है। बाल और पण्डित शरीर के विनाश के साथ ही विनष्ट हो जाते हैं।' आचार्य महाप्रज्ञ ने अजितकेशकम्बल के सिद्धान्त की तुलना 'तज्जीवतच्छरीरवाद' सेकी है। उन्होंने इस प्रसंग में सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध (2/1/13 - 2 2) में आगत उसके दार्शनिक विचारों का उल्लेख किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में किसी दार्शनिक के नाम का उल्लेख नहीं है जैसी कि आगम की शैली रही है किंतु वे विचार अजितकेशकम्बल के हैं यह निर्णय 'दीघनिकाय' में आगत उसके विचारों से तुलना करने से प्राप्त हो जाता है। सूत्रकृतांग में इन विचारों को 'तज्जीवतच्छरीरवादी' कहा गया है।। सूत्रकृतांग में तज्जीवतच्छरीरवादी' की विचारधारा का उल्लेख करते हुए कहा गयापैर के तलवे से ऊपर, शिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है-शरीर ही जीव है। ....आग में जला देने पर उसकी हड्डियां कबूतर के रंग की हो जाती है। आसंदी को पांचवीं 1. तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ. 1, पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंजा। षड्दर्शन समुच्चय, श्लोक 8 3, पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुभूतचतुष्टयम् । 3. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 10, लोकायतिकैस्तु भूतपंचकव्यतिरिक्तं नात्मादिकं.........। 4. वही, पृ. 10, आकाशं शुषिरलक्षणमिति.........प्रत्यक्षप्रमाणावसेयत्वाच्च । 5. वही, पत्र 11, केषांचिल्लोकायतिकानामाकशस्यापि भूतत्वेनाभ्युपगमात् । 6. मालवणिया, दलसुख, जैन दर्शन का आदिकाल, (Ahmedabad-9, 1980) पृ. 26 7. दीघनिकाय, पृ. 48, (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1958) चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो। 8. वही, पृ. 48, आकासं इन्दियानि सङ्कमन्ति। 9. वही, पृ. 48, बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति । 10. सूयगडो, 1/1/11-12 का टिप्पण 11. वही, 2/1/22...........तज्जीवतस्सरीरिए आहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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