Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 318
________________ 298 जैन आगम में दर्शन यह भी मन्तव्य है कि इस दार्शनिक विचारधारा को पकुधकात्यायन की भी मान सकते हैं जिसका वर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है।' __आचार्य महाप्रज्ञजी ने इस संदर्भ में विस्तृत विमर्श किया है। सारांश प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है "........पंचमहाभूत और सात काय-ये दोनों भिन्न पक्ष हैं । इस भेद का कारण पकुधकात्यायन की दो विचारशाखाएं हो सकती हैं और यह भी संभव है कि जैन और बौद्ध लेखकों को दो भिन्न अनुश्रुतियां उपलब्ध हुई हों। आत्मषष्ठवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। इसकी संभावना की जा सकती है कि पकुधकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंचमहाभूतवादी थे। वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे। उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे। ......' इस विमर्श के आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मषष्ठवाद पकुधकात्यायन का अभिमत है।' अमूल्यचन्द्र सेन ने भी इस अभिमत की तुलना पकुधकात्यायन के साथ की है। क्षणिकवाद बौद्ध ग्रन्थों में पांच स्कन्धों का प्रतिपादन हुआ है-रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कन्ध । ये सब क्षणिक हैं। बौद्ध दर्शन स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न, आत्मा को नहीं मानता तथा सहेतुक एवं अहेतुक आत्म भी उसे मान्य नहीं है।' । सूत्रकृतांग एवं उसकी चूर्णि के अनुसार बौद्ध आत्मा को पांच स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न दोनों ही नहीं मानते।' बौद्ध अमुक स्थिति नहीं मानते यह उल्लेख तो है किंतु क्या मानते हैं ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं है। दार्शनिक जगत् में उस समय दो दृष्टियां प्रचलित थीं। कुछ दार्शनिक आत्मा को शरीर से भिन्न मानते थे और कुछ दार्शनिक आत्मा और शरीर को एक मानते थे। बौद्ध इन दोनों दृष्टियों से सहमत नहीं थे। आत्मा के विषय में उनका अभिमत 1. Jacobi, Herman, Jaina Sutras, Part II (Motilal Banarsidass Delhi, 1980) Introduction P. XXIV........Atman or soul asasixth to the fivepermanent elements. This seems to have been a primitive or a popular form of the philosophy which we now know under the name of Vaiseshika, To this school of philosophy we must perhaps assign Pakudha Kakkayana of Buddhist record. सूयगडो, 1/1/15-16 का टिप्पण। SEN, Amulayachandra, School and Sects in Jaina Literature, (Visva-Bhaiti Book Shop, 210 cornwallis street Calcutta, 1931) PP. 18-19, we have to compare in this connection the doc trine of Pakudha Kaccayana stated in the Samannaphala Sutta (Digha, I1 P. 56) 4. दीघनिकाय, 10/3/20, रूपक्खन्धो, वेदनाक्खन्धो. संआक्खन्धो. संडारक्खंधो. विआणक्खन्धो। 5. सूयगडो, 1/1/17 6. वही, 1/1/17 7. सूत्रकृतांग चूर्णि, प.40, न चैतेभ्य आत्मान्तर्गतो भिन्नौ वा विद्यते. संवेद्यस्मरणाप्रसङ्गादित्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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