Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 319
________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 299 था कि वही जीव है और वही शरीर है-ऐसा नहीं कहना चाहिए। जीव अन्य है और शरीर अन्य है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए।' बौद्ध का दृष्टिकोण यह है कि स्कन्धों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन होता है तो उच्छेदवाद प्राप्त हो जाता है। स्कन्धों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन नहीं होता है तो पुद्गल शाश्वत हो जाता है। वह निर्वाण जैसा बन जाता है। बौद्ध दर्शन में उच्छेदवाद और शाश्वतवाद दोनों ही सम्मत नहीं है, इसलिए यह नहीं कहना चाहिए कि स्कन्धों से पुद्गल भिन्न हैं और यह भी नहीं कहना चाहिए कि स्कन्धों से पुद्गल अभिन्न हैं। धातुवादी बौद्ध यह मानते हैं कि पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार धातुओं से शरीर निर्मित होता है। सूत्रकृतांग में प्राप्त वर्णन से प्राप्त होता है कि उस समय बौद्धों के मध्य भी आत्मा के सम्बन्ध में दो प्रकार की अवधारणाएं थीं। एक आत्मा को पंचस्कन्ध रूप मान रही थी दूसरी के अनुसार वह चार धातु रूप थी। वृत्तिकार ने बौद्ध मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा है स्कन्ध पांच ही है उनसे अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई दूसरा स्कन्ध नहीं है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु को धारक एवं पोषक होने के कारण धातु कहा गया।' कुछ का मानना है कि जब ये चारों एकाकार में परिणत होकर कायाकार को धारण कर लेती हैं तब वे ही जीव व्यपदेश को प्राप्त कर लेती हैं। वृत्तिकार ने किसी को उद्धृत करते हुए कहा है- "चतुर्धातुकमिदं शरीरं न तद्व्यतिरिक्तं आत्माऽस्तीति'''- यह मत पंचभूतवादी के निकट लग रहा है। क्योंकि वहां पर भी शरीर को ही आत्मा कहा गया है। चतुर्धातुवादी का अतिरिक्त वैशिष्ट्य क्या है यह परिलक्षित नहीं हो रहा है। जैन मान्य आत्म-अवधारणा सूत्रकृतांग में आगत उपर्युक्त वादों का सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि इन वादों में तत्कालीन दर्शनों में मान्य आत्मा की अवधारणा को प्रस्तुत कर जैन दर्शन से इनकी भिन्नता ज्ञापित करने का प्रयत्न किया गया है। चार्वाक, उपनिषद् दर्शन, सांख्य, बौद्ध 1. अभिधम्मपिटकेकथावत्थुपालि, (संपा. भिक्षुजगदीशकाश्यप,नालन्दा, 1961) 1/1/91,92....तंजीवंतंसरीरं ति?न हेवं वत्तव्वे....। अनंजीवं अञ्जसरीरं? न हेवं वत्तव्वे....... ।। 2. वही, 1/1/94, खन्धेसु भिज्जमानेसु, सो चे भिज्नति पुग्गलो। उच्छेदा भवति दिट्ठि, या बुद्धेन विवज्जिता।। खन्धेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो। पुग्गलो सस्सतो होत्ति, निव्वानेन समसमो ति ।। 3. सूयगडो, 1/1/18 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 17, पंचैव स्कन्धा विद्यन्तेनापर: कश्चिदात्माख्य: स्कन्धोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति। 5. वही, पृ. 18, पृथिवी धातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुश्चेति, धारकत्वात्पोषकत्वाच्च धातुत्वमेषाम्। 6. वही, पृ. 18,यदैते चत्वारोऽप्येकाकारपरिणतिं बिभ्रति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमश्नुवते। 7. वही, पृ. 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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