Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 313
________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन मतों का उल्लेख है । आगम रचना की शैली के अनुसार इसमें केवल अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन और अस्वीकार है । यद्यपि जैन मन्तव्य का वहां पर उल्लेख नहीं किया है किंतु उन सिद्धान्तों की समीक्षा के आधार पर जैन मन्तव्य स्वतः फलित हो जाता है। सूत्रकृतांग में जिन दार्शनिक मतवादों की नामपुरस्सर समीक्षा की गई है हम उनका उल्लेख करेंगे जिससे जैन दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो सके। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, अफलवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, कर्मचय- अभाववाद आदि का वर्णन हुआ है । ' 293 सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारम्भ 'बुज्झेज्न तिउट्टेज्जा' इस शब्द समूह से हुआ है, जो विशेष मननीय है। बुज्झेज्न अर्थात् जानो और तिउट्टेज्जा तोड़ो । प्रस्तुत वाक्यांश का विश्लेषण ज्ञान एवं आचार के समन्वय के संदर्भ में किया गया है ।' विभिन्न दार्शनिक मतवादों के संदर्भ में इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है - पहले इन मतवादों को जानो तथा फिर विवेकपूर्वक इनका त्याग कर दो। इस निर्देश से स्वदर्शन स्वीकृति का पथ प्रशस्त हो जाता है । पंचभूतवाद सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में पंचभूतवाद की समीक्षा की गई है। कुछ दार्शनिक, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों को स्वीकार करते हैं तथा इनके विशेष प्रकार के संयोग से आत्मा उत्पन्न होती है तथा इन पांच महाभूतों के विनाश के साथ ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है, यह उनका अभिमत है । ' सूत्रकृतांग में यह किसका मत है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में मात्र 'एगेसिं" शब्द का प्रयोग करके यह अभिव्यक्त किया है कि ऐसा कुछ दार्शनिकों का अभिमत है। चूर्णिकार ने भी 'एगेसिं' शब्द से पांच महाभूतवादियों का ही ग्रहण किया है । " शीलांक ने इस मत को बार्हस्पति मत' तथा लोकायतमत भी कहा है।' इससे स्पष्ट है कि बार्हस्पतिमत एवं लोकायतिकमत परस्पर पर्यायवाची हैं। जिसे चूर्णिकार ने पंचमहाभूतवादी कहा है । सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में उन्हें पंचमहाभौतिक कहा गया है। बृहस्पति, लोकायतिक आदि शब्दों का प्रयोग वहां पर नहीं है। 1. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 29-31 2. सूयगडो, 1/1/1 का टिप्पण.... ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक करता है तथा अनाचार को छोड़ आचार का अनुपालन करता है। 'बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा' - इस श्लोकांश में यही सत्य प्रतिपादित हुआ है। पहले बंधन को जानो फिर उसे तोड़ो... यह दृष्टि न केवल ज्ञानवाद की है और न केवल आचारवाद की है यह दोनों का समन्वय है। 3. सूयगडो, 1 / 1 /7-8 4. वही, 1/1/7 5. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 34, एगेसिं णं सव्वेसिं, जे पंचमहब्भूतवाइया तेसिं एव । 6. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 10. बार्हस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि । 7. वही, पृ. 10, लोकायतिकैस्तु........ । 8. सूत्रकृतांग, 2 / 1 / 23, अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूइए त्ति आहिज्जइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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