Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 303
________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 283 (1) आत्मा है (2) लोक है (3) आगति और अनागति है (4) शाश्वत और अशाश्वत है (5) जन्म और मरण है (6) उपपात और च्यवन है (7) अधोगमन है (8) आश्रव और संवर है (9) दु:ख और निर्जरा है।' क्रियावाद में उन सभी धर्म-वादों को सम्मिलित किया गया है जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करते थे और जो आत्म-कर्तृत्व के सिद्धान्त को स्वीकार करते थे। आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का उल्लेख है। आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का पृथक्-पृथक् निरूपण है। यहां क्रियावाद का अर्थ केवल आत्म-कर्तृत्ववाद ही होगा किंतु समवसरण के प्रसंग में आगत क्रियावाद का तात्पर्य आत्मवाद, कर्मवाद आदि सभी सिद्धान्तों की समन्विति से है। क्रियावादीजीवका अस्तित्वमानते हैं। उसका अस्तित्वमानने पर भी वेजीवके स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हैं। कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे अ-सर्वव्यापी मानते हैं। कुछ मूर्त मानते हैं, कुछ अमूर्त मानते हैं, कुछ अंगुष्ठ जितना मानते हैं और कुछ श्यामाक तंदुलजितना | कुछ उसे हृदय में अधिष्ठित प्रदीपकी शिखाजैसामानते हैं। क्रियावादी कर्मफल को मानते हैं।' क्रियावादी को आस्तिक भी कहा जा सकता है। क्योंकि ये अस्ति के आधार पर तत्त्वों का निरूपण करते हैं।' तत्त्वार्थवार्तिक, षड्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों में क्रियावादी, अक्रियावादी आदि के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है।' जो क्रिया को प्रधान मानते हैं। ज्ञान के महत्त्व को अस्वीकार करते हैं। उनको भी कुछ विचारक क्रियावादी कहते हैं।' श्री हर्मन जेकोबी ने वैशेषिकों को क्रियावादी कहा है।' यद्यपि उन्होंने इस स्वीकृति का कोई हेतु नहीं दिया है तथा श्रीमान् जे. सी. सिकदर ने श्रमण निर्ग्रन्थों एवं न्याय-वैशेषिकों को क्रियावाद के अन्तर्गत सम्मिलित किया है। इस समाहार का हेतु उन्होंने आत्म-अस्तित्व 1. सूयगडो, 1/12/20,21 आयारो, 1/5,से आयावाई लोगावाई,कम्मावाई, किरियावाई। सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256, किरियावादीणं अत्थि जीवो, अत्थित्ते सति केसिंचि श्यामाकतन्दुलमात्र: केसिंचि असव्वगतो हिययाधिट्ठाणो....। 4. स्थानांगवृत्ति, पृ. 179, क्रियां जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवं रूपांवदन्तीति क्रियावादिन: आस्तिका इत्यर्थः । 5. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, 8/1 (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 13 6. भगवतीवृत्ति, पत्र 944, अन्ये त्वाहु-क्रियावादिनो ये ब्रुवते क्रियाप्रधानं किं ज्ञानेन। 7. Jacobi, Herman, Jaina Sutras, Part II, 1980 Introduction P. XXV........vaiseshika, proper, which is a Kriyavada system. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346