Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 302
________________ 282 जैन आगम में दर्शन से समझाया है। किंतु वह प्रक्रिया मूलस्पर्शी नहीं लगती। ऐसा प्रतीत होता है कि 36 3 मतों की मौलिक अर्थ-परम्परा विच्छिन्न होने के पश्चात् उन्हें गणित की प्रक्रिया के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है। उस वर्गीकरण से दार्शनिक अवधारणा का सम्यक् बोध नहीं हो पाता है। दार्शनिक विचारधारा के संदर्भ में समवसरण की अवधारणा जैन आगम साहित्य में चार समवसरणों का उल्लेख है। उनमें इन 3 6 3 मतवादों का समाहार हो जाता है। सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवें अध्ययन का नाम ही समवसरण है तथा उसका प्रारम्भ इन चार समवसरणों के उल्लेख से ही होता है चत्तारि समोसरणाणिमाणि पावादुया जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं अण्णामाहंसु चउत्थमेव ॥' जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का समवतार होता है, उसे समवसरण कहते हैंसमवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि ।' क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद ये चार समवसरण हैं। नियुक्ति में अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन किया है।' क्रियावाद __चार समवसरणों में एक है-क्रियावाद । क्रियावाद और अक्रियावाद का चिंतन आत्मा को केन्द्र में रखकर किया गया है। क्रियावादी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। आत्मा है, वह पुनर्भवगामी है। वह कर्म का कर्ता है, कर्म-फल का भोक्ता है और उसका निर्वाण होता हैयह क्रियावाद का पूर्ण लक्षण है। क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुतस्कन्ध में मिलती है। उसके अनुसार जो आस्तिक होता है, सम्यग्वादी होता है, इहलोक-परलोक में विश्वास करता है, कर्म एवं कर्मफल में विश्वास करता है। वह क्रियावादी है। दशाश्रुतस्कन्ध के विवेचन से क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं-आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्म और कर्मवाद। सूत्रकृतांग में क्रियावाद के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख प्राप्त होता है। वे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं1. गोम्मटसार 2, (कर्मकाण्ड) गा. 877-8 88, पृ. 1 2 3 8 - 1 2 4 3 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/1 3. सूयगडो, 1/12/1 4. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256 5. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गा. 118, अत्थि त्ति किरियवादी वदंति, नत्थि त्ति अकिरियवादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥ 6. दशाश्रुतस्कन्ध, 6/7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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