Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 297
________________ आचार मीमांसा 277 वास्तविक परिग्रह तो मूर्छा है।' मूर्छा का अर्थ है किसी भी वस्तु में ममत्व का भाव । यह ममत्व की चेतना रागवश होती है। इसी चेतना के कारण अर्जन, संग्रह आदि के लिए प्राणी प्रयत्नशील रहता है। अपरिग्रह के जागरण के लिए मूच्र्छा-त्याग अनिवार्य है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार समग्र जागतिक दु:खों का मूल कारण तृष्णा है। जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसका मोह समाप्त हो जाता है और जिसका मोह समाप्त हो जाता है उसके दु:ख भी नष्ट हो जाते हैं।' मूर्छा/आसक्ति ही परिग्रह है। आसक्ति का ही दूसरा अभिधान लोभ है और लोभ को सर्वगुणों का विनाशक कहा गया है।' अहिंसा का सामाजिक आधार अपरिग्रह अनाग्रहया अनेकांत अहिंसा का वैचारिक आधार है। इसी प्रकार अहिंसा का सामाजिक आधार अनासक्ति या अपरिग्रह है। व्यक्तिगत जीवन में जिसे अनासक्ति कहते हैं, सामाजिक जीवन में वही अपरिग्रह हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन में आसक्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है-परिग्रह-भाव और भोग-भावना, जिनके वशीभूत होकर व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति तीन रूपों में बाह्य-स्तर पर अभिव्यक्त होती है 1. अपहरण या शोषण 2. आवश्यकता से अधिक परिग्रह 3. भोग। केवल हत्या या रक्तपात ही हिंसा नहीं है, परिग्रह भी हिंसा ही है क्योंकि हिंसा के बिना परिग्रह असंभव है। संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन होता है और इस रूप में परिग्रह हिंसा है। अपरिग्रह बाह्य अनासक्ति है, अनासक्ति आन्तरिक अपरिग्रह है। अपरिग्रह के विकास के लिए अनासक्ति का विकास आवश्यक है। जैन आगम संविभाग की चर्चा करते रहे हैं। संविभाग को आध्यात्मिक साधना का आवश्यक अंग माना है। वर्तमान में आचार्य तुलसी ने विसर्जन चेतना को जगाने का सघन प्रयत्न किया। आचार्य महाप्रज्ञ न केवल अध्यात्म के लिए अपितु स्वस्थ सामाजिक जीवन जीने के लिए विसर्जन को अनिवार्य मानते हैं। उनका मानना है कि "हिंसा से भी अधिक जटिल है परिग्रह की समस्या। वर्तमान समस्या को देखते हए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है। 'अहिंसा परमोधर्म:' के साथ-साथ 'अपरिग्रह, परमो धर्म:' इस घोष का प्रबल होना जरूरी है। अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया। उसे वापस जोड़कर ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। जिस दिन 'अहिंसा परमो धर्म:' के साथ 'अपरिग्रह: परमो धर्म:' का एक स्वर बुलन्द होगा, आर्थिक 1. दसवेआलियं, 6/20, मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। 2. उत्तरज्झयणाणि 32/8 3. वही, 8/37, लोहो सव्वविणासणो। 4. सिंह, रामजी, जैन दर्शन : चिंतन-अनुचिंतन, (लाडनूं, 1993) पृ. 84 5. दसवेआलियं, 9/2/22, असंविभागी न ह तस्स मोक्खो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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