Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 295
________________ आचार मीमांसा 275 संतुष्ट होते हैं। देवताओं को तृप्त करते-करते, उनका अनुग्रह प्राप्त करते-करते संसार से भी मुक्ति पाई जा सकती है। इस संसार-मुक्ति और दु:ख-मुक्ति के लिए भी उस समय बहुत सारे लोग हिंसा करते थे। व्यथा-शमन-केवल इन्द्रिय और मन की तृसि के लिए लगा हुआ व्यक्ति आर्त बनता है। जब वह आर्त होता है तब प्रव्यथित रहता है। अपनी व्यथा को मिटाने के लिए वह दूसरों को दु:ख देता है, दूसरों का वध करता है। आतुरता भी हिंसा का कारण बनती है।' आचारांग ने हिंसा के कुछ निमित्तों को गिनवाया है उनके आधार पर उस समय की धार्मिक मान्यताओं का तथा मनुष्य की मौलिक मनोवृत्तियों का ज्ञान होता है। आज हिंसा के निमित्तों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत की जा सकती है। संक्षेप में कषाय ही हिंसा का मूल कारण है। अत: कषाय-शमनही हिंसा के समाप्त होने का कारण बनता है। कषाय-मुक्ति की साधना को प्रस्तुत करना ही आचार-शास्त्र का मुख्य लक्ष्य है। शस्त्र विमर्श वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य शस्त्र और भावशस्त्र। ठाणं में दस प्रकार के शस्त्र का उल्लेख है।' अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, अम्ल, दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया एवं अविरति । इनमें अग्नि आदि प्रथम छह द्रव्य शस्त्र हैं एवं शेष चार भाव शस्त्र हैं। अविरति सबसे बड़ा शस्त्र है। अविरति पर नियंत्रण होने से अन्य शस्त्रों पर स्वत: नियंत्रण हो जाएगा। सबसे पहले शस्त्र का निर्माण हमारे भाव या मस्तिष्क में होता है। आचारवान वह होता है जो अविरति के शस्त्र से दूर रहता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने नि:शस्त्रीकरण को आचार कहा है। उनके शब्द हैं-"नि:शस्त्रीकरण का नाम है आचार।" यद्यपि आचार की यह सापेक्ष परिभाषा है किंतु आज के संदर्भ में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जब तक भाव का, मस्तिष्क का नि:शस्त्रीकरण नहीं होगा तब तक विश्वयुद्ध के खतरे को टाला नहीं जा सकता। यदि भाव में नि:शस्त्रीकरण हो जाए तो बाह्य शस्त्र अधिक खतरा पैदा नहीं कर सकते। भगवान् महावीर ने जैन श्रावकों के लिए जो व्रतों की आचार संहिता दी, उसका एक सूत्र है- जैन श्रावक शस्त्रों का निर्माण नहीं करेगा। शस्त्रों के पुों का संयोजन भी नहीं करेगा। इसके साथ ही अविरति रूप भाव शस्त्र जो असंयममय है उस पर नियंत्रण करने का संदेश दिया है। अविरति ही मुख्य शस्त्र है उसका नियमन आवश्यक है। जैन आचार उसके नियमन पर विशेष बल देता है। - - 1. आयारो, 1/14, आतुरा परितावेति । 2. स्थानांगवृत्ते, पृ. 328, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, शस्त्रं-हिंसक वस्तु. तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । 3. ठाणं, 10/93, दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तंजहा सत्थमग्गी विसंलोणं सिणेहो खारमंबिलं। दुप्पउत्तोमणो वाया, काओ भावो य अविरती।। महाप्रज्ञ, आचार्य, अस्तित्व और अहिंसा, (लाडनूं, 1990) पृ. 5 5. अंगसत्ताणि 3 (उवासगदसाओ) 1/39 ...........संजुत्ताहिकरणे। 4. महाजरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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