Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 294
________________ 274 जैन आगम में दर्शन अस्ति (प्रतिलाभ होता है) कहने पर अधिकरण-हिंसा का अनुमोदन होता है। इसलिए ऐसे प्रसंग में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता-दोनों अवक्तव्य हैं। सिद्धान्त निरूपण के समय जो जैसा है, वैसा स्पष्ट किया जा सकता है किंतु वर्तमान काल में दान देने के प्रसंग पर मुनि मौन रहे, शांतिमार्ग का आलंबन ले, इस प्रकार का व्यवहार करे जिससे प्रश्नकर्ता भी उपशान्त हो जाए और शासन की अनुपालना भी हो जाए।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इस तथ्य को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि स्वतीर्थिक अथवा अन्यतीर्थिक को दान या ग्रहण के प्रति जो लाभ होता है उसमें भी ऐकान्तिक भाषा न बोले। दान का निषेध करने पर अन्तराय की संभावना होती है और भिक्षु के मन में विपरीत भावना उत्पन्न हो सकती है। दान का अनुमोदन करने पर हिंसा का प्रसंग होता है। इसलिए अस्ति-नास्ति-दोनों उसके लिए अवक्तव्य है। वह विधि-निषेध को छोड़कर निरवद्य वचन बोले।' हिंसा के प्रमुख कारण हिंसा में प्रवृत्त होने के राग-द्वेष आदि आन्तरिक कारण तो हैं ही। आन्तरिक कारण के अभाव में बाह्य कारण हिंसा के उत्प्रेरक नहीं हो सकते। जैन-दर्शन ने उपादान के साथ निमित्त के प्रभाव को भी स्वीकार किया है। आचारांग जैसे प्राचीन ग्रन्थ में भी हिंसा करने के निमित्त कारणों का उल्लेख हुआ है। हिंसा सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन दोनों प्रकार की होती है। सप्रयोजन हिंसा के कितने कारण हो सकते हैं, इसका उल्लेख करते हुए आचारांग में कहा गया वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जाम, मरण और मोचन के लिए, दु:ख-प्रतिकार के लिए मनुष्य कर्म समारम्भ करता है। जिजीविषा-समस्त जीव जगत की प्रमुख एवं प्रथम इच्छा - जिजीविषा है। विद्वान से लेकर जातमात्र कीड़े में भी इसको देखा जा सकता है। जिजीविषा हिंसा का बहुत बड़ा कारण बनती है। __ लोकैषणा-जब परमार्थ की चेतनाजागृतनहीं होती, केवलइन्द्रिय और मन की परिधि में ही चेतना का विकास होता है, तब मन में प्रशंसा, बड़प्पन, पूजा, प्रतिष्ठा की भावना पनपती है। यह लोकैषणा सदा बनी रहती है। इस लोकैषणा के कारण वे लोग हिंसा करते हैं। धर्म की मिथ्या धारणा-धर्म के साथ जो हिंसा जुड़ती है, उसके दो कारण हैं-जन्ममरण से मुक्ति और दु:ख से मुक्ति । बहुत से धार्मिकों ने महावीर के समय में भी तंत्र के आदि के प्रयोग चालू किए। पशु-बलि की बात तो मान्य थी ही, नर-बलि की भी बात मान्य हो गई। उसका आधार यही बनता था कि इन प्रक्रियाओं से शक्ति की उपासना होती है, देवता 1. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 4 1 2, 4 1 3, (उधृत सूयगडो 2, पृ. 309) 2. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 2 5 7, ........तद् दाननिषेधेऽन्तरायसंभवस्तद्वैचित्यं च, तद् दानानुमत वप्यधिकरणोद्भव इत्यतोऽस्ति दानं नास्ति वेत्येवमेकान्तेन न ब्रूयात्, कथं तर्हि ब्रूयादिति.........निरवद्यमेव ब्रूयात्। 3. सूयगडो, 2/2/2 4. आयारो, 1/10, इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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