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जैन आगम में दर्शन
तेजस्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग
'जैसे खद्योत के शरीर की तैजस परिणति रात्रि में प्रकाशमय होकर प्रदीस होती है, उसी प्रकार अग्नि में भी जीव के प्रयोग विशेष से आविर्भूत प्रकाश-शक्ति का अनुमान किया जाता है। जैसे ज्वर की उष्मा जीव में ही पाई जाती है, उसी प्रकार उष्मावान होने के कारण अग्नि भी जीव है, ऐसा अनुमान किया जाता है।।
___ आचारांग वृत्ति में अग्नि को सचेतन कहा गया है, क्योंकि उसमें उचित आहार-ईंधन से वृद्धि और ईंधन के अभाव में हानि देखी जाती है।
आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय से शेष जीवकायों की अपेक्षा तेजस्काय में विशेषता दृष्टिगोचर होती है। अग्निकायिक जीवों का शरीर सूई की नोक जैसा होता है। अग्निकाय को तीक्ष्ण शस्त्र कहा गया है। यह सब ओर से जीवों का आघात करती है। अग्निकाय के शस्त्र
आचारांग नियुक्तिकार ने अग्निकायिक जीवों की शस्त्रतुल्य वस्तुओं का निरूपण किया है -
1. मिट्टी या बालु 2. जल 3. गीली वनस्पति 4. वसप्राणी 5. स्वकायशस्त्र-पत्तों की अग्नि तृण की अग्नि का शस्त्र होती है। पत्राग्नि के संयोग से
तृणाग्नि अचित्त हो जाती है। 6. परकायशस्त्र-जल आदि। 7. तदुभयशस्त्र-भूसी और सूखे गोबर आदि से मिश्रित अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र
होती है।
1. आचारांगनियुक्ति,गाथा ।19, जह देहप्परिणामो रत्तिं खज्जोयगस्ससा उवमा।
जरियस्स यजह उम्हा, तओवमा तेउजीवाणं ।। 2. आचारांगवृत्ति, पृ. 3 4 3. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा 201 4. दसवेआलियं, 6/32, तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं । आचारांगनियुक्ति,गा. 123,124. पुढवी आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा।
बायरतेउक्काय एयं तु समासओ सत्थं ।। किंचि सकायसत्थं किंचि परकाय तदुभयं किंची।
एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो।। 6. आचारांगभाष्यम्, पृ. 56
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