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जैन आगम में दर्शन
संप्लववादी मानते हैं कि जिस प्रमेय को एक प्रमाण द्वारा जाना जा सकता है उसी प्रमेय को दूसरे प्रमाण के द्वारा भी जाना जा सकता है। इसके विपरीत प्रमाण-व्यवस्थावादी मानते हैं कि प्रत्येक प्रमाण का स्वतंत्र विषय है। जिस प्रमेय को आगम द्वारा जाना जा सकता है उसे प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा नहीं जाना जा सकता। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का भी यही मत प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने कहा है कि हेतुगम्य को हेतु द्वारा और आगमगम्य को आगम द्वारा जानने का प्रयत्न जैन सम्मत है और इसके विरुद्ध मानना जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल है।' सायण ने भी कहा है कि हम वेद अर्थात् आगम द्वारा उन प्रमेयों को जानते हैं जिन्हें प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा नहीं जाना जा सकता।
इस संदर्भ में इतना विषेश ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में आगम का प्रामाण्य विशिष्ट ज्ञान पर आधारित है। न्याय-परम्परा में इसे योगज प्रत्यक्ष कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि हम जिन प्रमेयों को आगम द्वारा जानते हैं उन प्रमेयों को ही केवली अथवा योगी पारमार्थिक प्रत्यक्ष द्वारा जानता है। इसीलिए उनके वचन आप्त-पुरुष के वचन होने के कारण प्रमाण बन जाते हैं।
पुनर्जन्म जैसा इन्द्रियातीत विषय भले ही आगम-गम्य हो किंतु जिन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण होता है, उनके लिए तो वह विषय स्वानुभवगम्य ही है। जिनकी आगमप्रमाण में श्रद्धा नहीं है वे भी पूर्वभव का स्मरण रखने वाले व्यक्तियों के उदाहरण से पुनर्भव के सिद्धान्त तथा उससे जुड़े हुए कर्म सिद्धान्त को जान सकते हैं किंतु अभी पूर्वभव स्मृति के उदाहरणों को पूर्ण वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है अत: जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक तो आगम प्रमाण ही इस विषय में हमारे लिए मुख्य स्रोत बना रहेगा। इस दृष्टि से यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि जैन आगमों में कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में क्या कहा गया है ? विविधता का मूल कर्म
मूल समस्या प्राणी और प्राणी के बीच दिखाई देने वाली विभिन्नता का कारण ढूंढने की है। यह विभिन्नता प्रत्यक्ष गोचर है-कोई सुखी है, कोई दु:खी है, कोई जीव चींटी की योनि में है कोई हाथी की, कोई मन्दमति है और प्रखरबुद्धि, कोई लब्धप्रतिष्ठ है कोई अपयश
1. सन्मतितर्क प्रकरण 3/45 जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ।
सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो। 2. ऋग्वेद संहिता, सायणभाष्य उपोद्घात, पृ. 26 पर उद्धृत
प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्ध्यते। एनं विदन्ति वेदेन, तस्माद् वेदस्य वेदता।। 3. मूलाचार 5/80, सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च।
सुदकेवलिणाकथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च ।। 4. प्रत्यक्ष खण्ड कारिका 63, अलौकिकस्तु व्यापारस्त्रिविधः परिकीर्तितः।
सामान्यलक्षणो ज्ञानलक्षणो योगजस्तथा।। 5. ईआन स्टीवेंसनकत शोध के उदाहरण द्रष्टव्य हैं।
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