Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 287
________________ आचार मीमांसा 2 67 हुआ है।' जैन आगमों में प्रतिमाओं के उल्लेख तो प्राप्त हैं किंतु उनकी विशिष्ट साधना विधि सम्यक् प्रकार से उपलब्ध नहीं है। अंतगडदसाओ में एक रात्रि की महाप्रतिमा का उल्लेख मिलता है। दसाओ में 'महाप्रतिमा' नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा का उल्लेख है।' एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा और एकरात्रिकी महाप्रतिमा में केवल नाम का भेद है स्वरूप भेद नहीं है। भगवान् महावीर ने तेले में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी। एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा भी तेले में स्वीकार की जाती है। भगवान् महावीर ने सानुलष्ठि ग्राम के बाहर जाकर भद्राप्रतिमा की। उसकी विधि के अनुसार भगवान् ने प्रथम दिन पूर्व दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। रातभर दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरे दिन पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरी रात्रि को उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। इस प्रकार षष्ठ भक्त के तप तथा दो दिन-रात के निरन्तर कायोत्सर्ग द्वारा भगवान् ने भद्रा-प्रतिमा सम्पन्न की। भगवान् महावीर ने साधना काल में ध्यान, तप आदि के विशिष्ट प्रयोग किए थे। जिनकी सूचना उपर्युक्त संदर्भो से हो रही है। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्थानांग टिप्पण में इन प्रतिमाओं का विशद विवेचन किया है।' विस्तार के लिए वे स्थल द्रष्टव्य हैं। एकलविहार प्रतिमा एकलविहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर साधना करने का संकल्प । जैन परम्परा के अनुसार साधक तीन स्थितियों में अकेला रह सकता है - 1. एकाकीविहार प्रतिमा स्वीकार करने पर। 2. जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार करने पर। 3. मासिक आदि भिक्षु प्रतिमाएं स्वीकार करने पर। हर कोई व्यक्ति इस प्रतिमा को स्वीकार नहीं कर सकता। विशिष्ट योग्यता सम्पन्न अनगार ही इसे स्वीकार कर सकते हैं। स्थानांग में प्रतिमा स्वीकार की योग्यता के आठ अंगों का उल्लेख हुआ है। वे अंग निम्न हैं1. समवाओ, 91/1, 92/2 2. अंगसुत्ताणि 3, अंतगडदसाओ, (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 20 31) 3/8/ 88 3. दसाओ, 1/33 4. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 495, सावत्थी वासं चित्ततवो साणुलट्ठि बहिं। पडिमाभद्द महाभद्द सव्वओभद्द पढमिआ चउरो।। 5. ठाणं, पृ. 132-137 6. स्थानांगवत्ति, पत्र 416, एकाकिनो विहारो-ग्रामादिचर्या स एव प्रतिमाभिग्रह: एकाकिविहार-प्रतिमा जिनकल्पाप्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षुप्रतिमा। (उद्धृत ठाणं, टिप्पण, पृ. 823) 7. ठाणं,8/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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