Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 290
________________ 270 जैन आगम में दर्शन असोच्चा केवली जैन दर्शन की 'असोच्चा केवली' की अवधारणा भी इसी तथ्य को संपुष्ट करती है कि आध्यात्मिक चरम विकास का हेतु बाह्य परिवेश नहीं है किंतु आन्तरिक निर्मलता ही है। भगवती में असोच्चाकेवली का एक लम्बा प्रकरण उपलब्ध है। जिसमें उनके परम आध्यात्मिक विकास की सूचना प्राप्त है। कुछ व्यक्ति केवलीप्रज्ञप्त धर्म को केवली, केवली के श्रावक आदि से नहीं सुनते हैं फिर भी वे केवलीप्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकते हैं तथा बोधि को प्राप्त कर गृहस्थ धर्म को छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाते हैं तथा ब्रह्मचर्य, संयम, संवर से युक्त होकर मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान को उत्पन्न कर सकते हैं।' असोच्या केवली की साधना असोच्चा केवली अर्थात् जिसने अपने विकास की राह का स्वयं निर्माण किया है। अध्यात्म क्षेत्र में उपलब्ध सहयोग के बिना भी वह अपनी साधना की विशिष्ट प्रक्रिया से उस अन्तिम, इच्छित मंजिल को प्राप्त कर लेता है। भगवती में अश्रुत्वा पुरुष के आध्यात्मिक आरोहण के सोपानों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध है। निरन्तर बेले का तप, ऊर्ध्वबाहु करके सूर्याभिमुखी आतापना, प्रकृति की भद्रता, प्रकृति उपशांतता, क्रोध आदि कषायों की अल्पता, मृदुमार्दव संपन्नता आदि गुणों के द्वारा प्राप्त विशुद्धि से विभंगज्ञान को प्राप्त करता है। सूक्ष्म सत्यों कोजानने की शक्ति सेवह सम्यक्त्व तक पहुंच जाता है और उसका विभंग अज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो जाता है। क्रमश: ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय कर केवली प्रज्ञप्त धर्म को किसी से न सुनकर भी स्वत: ही उसे प्रास कर मुक्तावस्था को प्रास हो जाता है। जैन धर्म की यह अवधारणा भी इसी तथ्य को निर्देशित कर रही है कि कोई व्यक्ति अमुक धर्म का श्रवण करे, उस धर्म से सम्बन्धित व्यक्तियों के संपर्क में आए, आत्म-शुद्धि के लिए इनकी कोई अनिवार्यता नहीं है। "हमारे धर्म में आओ तब ही मुक्ति होगी" जैन इस अवधारणा का संपोषक नहीं है। उसका आग्रह इतना ही है कि किसी देश, वेश, परिवेश में रहे किंतु कषाय-मुक्ति आवश्यक है। कषायमुक्ति: किन मुक्तिरेवकषाय यदि है तो जैनधर्म में रहने से भी मुक्ति नहीं होगी कषाय यदि नहीं है तो अन्य स्थान से भी मुक्ति हो जायेगी। क्रियावाद कर्मबन्ध की हेतुभूत प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं। ' क्रिया के बिना कर्मबन्ध नहीं हो सकता। कृत, कारित और अनुमति के भेद से क्रिया के तीन प्रकार हैं। भूत, भविष्य एवं वर्तमान 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 9/9-32 2. वही, 9/33 3. भगवती वृत्ति, 3/134, करणं क्रिया कर्मबन्धननिबन्धा चेष्टा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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