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जैन आगम में दर्शन
है। आत्म-श्लाघा करने में संलग्न वह आचार्य की अवमानना करने लगता है। रस-गौरवयुक्त व्यक्ति आहार-शुद्धि का ध्यान नहीं रखते। ऐसे व्यक्तियों को अपना व्रत खंडित करने में भी संकोच नहीं होता है। साता गौरव वाले अपने साधुत्व को विस्मृत करके शरीर विभूषा में सम्पृक्त हो जाते हैं। उनका आत्म-साधना का लक्ष्य धूमिल हो जाता है। इन सभी विधूननों में कर्म विधूनन ही प्रधान है। वस्तुत: स्वजन, उपकरण, शरीर आदि विधूननों का पर्यवसान कर्म विधूनन में होता है। कर्म-विधूनन प्रधान है अत: साधक को इसके लिए प्रयत्न करना अपेक्षित है। कर्मविधूनन के अनेक साधन हैं, उनमें एक साधन है-एकत्व-अनुप्रेक्षा। इससे कर्मविधूनन सम्पादित होता है। इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए आचारांग कहता है कि साधक सब संगों का त्याग कर ऐसी अनुप्रेक्षा करे-मेरा कोई भी नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं
“अइअच्च सव्वतो संगंण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि।। आहार संयम की साधना
काम-तृष्णा पर विजय पाने के इच्छुक साधक को रस-परित्याग करना अपेक्षित है। रसों का प्रकामसेवन नहीं करना चाहिए। इससे धातुएं उद्दीप्त होती हैं और काम-भोग साधक को पीड़ित करते रहते हैं। रसों के अधिक सेवन से देहाध्यास भी बढ़ता है तथा वह मोक्षसाधना में बाधक है। देहाध्यास काय-क्लेश के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। काय-क्लेश सहनशक्ति की क्रमिक वृद्धि के साथ-साथ शील, समाधि एवं प्रज्ञा को परिपक्व करता है। आचारांग कहता है-"जैसे-जैसे शरीर कृश होता है एवं मांस-शोणित सूखते हैं वैसे-वैसे प्रज्ञा का उदय पुष्ट होता है। प्रज्ञा के पुष्ट होने पर वैराग्य की पुष्टि होती है, वैराग्य की पुष्टि के साथ-साथ साधक अरति को अभिभूत कर सकता है
'विरयं भिक्खु रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ किं विधारए ?''
चिरकाल से प्रव्रजित संयम में उत्तरोत्तर गतिशील विरत भिक्षुको क्या अरति अभिभूत कर पाती है ?
उपर्युक्त साधना का संवादी उल्लेख बौद्ध साधना में भी प्राप्त होता है। 'मार' को सम्बोधित करके बुद्ध कह रहे हैं-"खून के सूखने पर पित्त और कफ सूखते हैं, मांस के क्षीण होने पर चित्त अधिकाधिक प्रसन्न होता है, अर्थात् श्रद्धा का उन्मेष होता है, श्रद्धा का उन्मेष होने पर स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा पुष्ट होती है। उत्तमोत्तम वेदना की अधिवासना के साथसाथ काम-तृष्णा पर पूर्ण विजय प्राप्त होती है एवं आत्मा परम शुद्धि में प्रतिष्ठित होती है।' 1. आयारो, 6/38 2. उत्तरज्झयणाणि, 32/10, रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं।
दितंच कामा समभिवंति, दुमंजहा साउफलं व पक्खी। 3. आयारो, 6/67, आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति. पयणए य मंससोणिए। 4. आयारो, 6/70 5. सुत्तनिपात पधानसुत्त 9/11
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