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कर्ममीमांसा
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कर्म का बंध कब से?
जीव के साथ कर्म का बंध है। इस संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि वह सम्बन्ध कबसे है? यह प्रश्न न केवल जैनदर्शन के सामने है, अपितु सभी भारतीय दर्शनों के सामने है। ब्रह्म और माया का सम्बन्ध, प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध, आत्मा और परमाणुकासम्बन्ध, नाम और रूप का सम्बन्ध, जीव और कर्म के सम्बन्ध को उन-उन परम्पराओं ने अनादि माना है। उनका परस्पर अनादि सम्बन्ध है। जैनदर्शन भी जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि मानता है। जैनदर्शन के अनुसार जीव और कर्म का सम्बन्ध 'अपश्चानुपूर्विक' है।' अर्थात् न पहले न पीछे। जीव और कर्म के सम्बन्ध में पूर्वता एवं अपरता मानने से अनेक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं। यदि जीव पूर्व में हो कर्म बाद में हो तो कर्म-रहित जीव संसार में क्यों रहेगा? यदि कर्म पहले हो जीव बाद में हो तो जीव के बिना कर्म किए किसने? क्योंकि कर्म तो जीवकृत होते हैं, अत: जीव और कर्म में पौर्वापर्य नहीं है। रोह के प्रसंग से यही तथ्य उद्भूत हो रहा है।
रोह के द्वारा मुर्गी एवं अंडे के पौर्वापर्य के बारे में जिज्ञासा प्रस्तुत करवाकर मुर्गी एवं अण्डे में अनानुपूर्वी सिद्ध कर देते हैं। वैसे ही जीव एवं अजीव में भी अनानुपूर्वी है।' 'कब' का समाधान कब होगा या नहीं होगा या यही होगा-ये सब अनन्त काल के प्रवाह में सतत गतिशील रहने वाले प्रश्न हैं, जिन पर ऊहापोह होता रहेगा। कर्म का कर्ता
जीव और कर्म का परस्पर सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का कर्ता कौन है ? दूसरे शब्दों में कर्म को कौन करता है ? इस संदर्भ में कुछ विकल्प उपस्थित हैं
1. कर्म प्रकृतिकृत हैं, 2. कर्म नियतिकृत हैं,
3. कर्म चैतन्य (जीव) कृत हैं। सांख्य : प्रकृति कर्म की कर्ता
प्रथम विकल्प के अनुसार कर्म ही कर्म का कर्ता है। कर्म से भिन्न कोई अन्य शक्ति कर्म को नहीं कर सकती। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्म प्रकृति का ही हिस्सा है। कर्म का बन्धनविमोचन प्रकृतिकृत ही है। सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष चेतन, अकर्ता अपरिणामी और केवल साक्षी द्रष्टा है। उसमें किसी भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व प्रकृति का धर्म है। 1. अंगसुत्ताणि :, (भगवई) 1/291 नियमं अणंतेहिं। जहा नेरझ्यस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं
मणूसस्स जहा जीवस्स। 2. वही, 1/295 3. सांख्यकारिका, श्लोक 19 4. सांख्यकारिका, श्लोक 19
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