Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 160
________________ 140 जैन आगम में दर्शन होता है । संख्येय, असंख्येय और अनन्त-इस काल-गणना का आधार भी व्यावहारिक काल है।' __आधुनिक विज्ञान भी काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मान रहा है। उसके अनुसार काल Subjective है । Stephen Hawking के शब्दों में आधुनिक विज्ञान सम्मत काल की अवधारणा को हम समझ सकते हैं-.......Our views of nature of time have changed over the years. Up to the beginning of this century people belived in an absolute time. That is, each event could be labeled by a number called "time" in a unique way, and all good clocks would agree on the time interval between two events. However, the discovery that the speed of light appeared the same to every observer, no matter how he was moving, led to the theory of relativityand in that one had to abandon the idea that there was a unique absolute time. Instead, each observer would have his own measure of time as recorded by a clock that he carried : clocks carried by different observers would not necessarily agree. Thus time became a more personal concept, relative to the observer who measured it.? काल के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेद हो सकते हैं किंतु व्यावहारिक जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम्' जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अत: काल की स्वीकृति आवश्यक है। कालवादी दार्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्त्व स्वीकार करते हैं।' इतना न भी माने तो भी विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्त्व तो काल को मानना ही होगा। द्रव्य-मीमांसा के अन्तर्गत द्रव्य सम्बन्धी कतिपय मुख्य अवधारणाओं का उल्लेख प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। भगवती में अस्तिकाय/द्रव्य संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं प्रतिपादित हैं, जिनमें से जीवास्तिकाय को छोड़कर शेष द्रव्य सम्बंधी विवेचन प्रस्तुत अध्याय में हुआ है। अब अग्रिम अध्याय में जीवास्तिकाय का वर्णन करेंगे। 000 तत्त्वार्थवार्तिक, 5/22/25, मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक च प्राणिनां संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्ता नन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद: सर्वत्र जघन्य-मध्यमोत्कृष्टावस्थाः क्रियते। 2. Hawking, Stephen, A Brief History of Time, New York, 1990, P. 143 3. षड्दर्शनसमुच्चय (डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली, 1997) वृ. पृ. 16, काल: पचति भूतानि काल: संहरति प्रजाः। काल: सुसेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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