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जैन आगम में दर्शन
के भी परमाणु होते हैं किन्तु उनकी अभिधा प्रदेश रूप में हैं क्योंकि वे अपने स्कन्ध से कभी विलग नहीं होते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य एवं आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त कहे गए हैं।' अस्तिकाय प्रदेशात्मक
__ भगवती में प्राप्त अस्तिकाय का स्वरूप दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस के स्वरूप पर विशद विश्लेषण किया है। भगवती के भाष्य में इसकी विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा है कि ----
“जीवतत्त्वका सिद्धांत अनेकदर्शनों में स्वीकृत है। वह अंगुष्ठ परिमाण है, देह-परिमाण है अथवा व्यापक है-यह विषय भी चर्चित है, किंतु उसका स्वरूप ज्ञान- उसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं-यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतलाकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है।
जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है-परमाणु या परमाणु-स्कन्ध । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार परमाणु स्कन्ध हैं। इनके परमाणु कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश स्कन्ध कहलाते हैं। पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणुस्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं।
पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध चैतन्यमय हैं, शेष तीन अस्तिकायों के प्रदेश-स्कन्ध तथा पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध और परमाणु चैतन्य रहित हैं, अजीव हैं।
पांच अस्तिकायों में चार अस्तिकाय अमूर्त हैं, पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। अमूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अभाव । मूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होना।"
पांच अस्तिकाय के साथ काल का योग होने पर छह द्रव्य बन जाते हैं।' अस्तिकाय शब्द विमर्श
अस्तिकाय शब्द अस्ति और काय इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। प्रस्तुत संदर्भ में अस्ति का अर्थ प्रदेश एवं काय का अर्थ समूह है, प्रदेश-समूह को अस्तिकाय कहा जाता है।' 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/134,135 2. भगवई, (खण्ड) पृ. 292 3. पंचास्तिकाय, (ले. आचार्य कुन्कुन्द, अगास,1986) गाथा 6, तेचेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा।
गच्छन्ति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता। 4. भगवई, (खण्ड-1), पृ. 411, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया-राशयोऽस्तिकाया: ।
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