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जैन आगम में दर्शन
जीवास्तिकाय को लोक व्यापी कहा गया है वह एक जीव की अपेक्षा से नहीं है किन्तु उस वक्तव्य का तात्पर्य है कि लोक में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहां जीव नहीं हो । यही नियम पुद्गलास्तिकाय पर लागू होता है। अचित महास्कन्ध की अवस्था में पुद्गल का एक स्कन्ध लोक-व्यापी बनता है किन्तु भगवती में उल्लिखित पुद्गलास्तिकाय के लोक व्यापित्व का अर्थ है लोक का कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहां पुद्गल न हो अर्थात् पुद्गल का अवस्थान सम्पूर्ण लोक में है। भगवती में चार अस्तिकाय को लोकव्यापी एवं आकाशास्तिकाय को लोकालोकव्यापी कहा है। सब अस्तिकाय लोक व्यापी होने पर भी उनका लोक -व्यापित्व एक जैसा नहीं है, यह उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है। अस्तिकाय की विविधता
जैनदर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा विश्व-अस्तित्व कीबोधक है। विश्व-अस्तित्व की समग्र अवधारणा अस्तिकाय शब्द से अभिव्यंजित हो जाती है। जैन दर्शन में धर्म-अधर्म आदि पांच अस्तिकाय स्वीकृत हैं किंतु इनके स्वरूप में विविधता है। अस्तिकाय शब्द तो सबके लिए प्रयुक्त हुआ है पर सबका अस्तिकायत्व एक जैसा नहीं है। अस्तिकाय की अवधारणा का विमर्श करने पर तीन प्रकार के अस्तिकाय की अवगति होती है
1. धर्म, अधर्म एवं आकाश 2. जीवास्तिकाय 3. पुद्गलास्तिकाय।
धर्म-अधर्म एवं आकाश रूप अस्तिकाय अविभाज्य स्वरूप वाला है । वह संख्यात्मक दृष्टि से एक है।' उसके प्रदेश विभक्त नहीं होते।
जीव के समुदय को जीवास्तिकाय कहा गया है। जीव अनन्त हैं। एक-एक जीव के असंख्य-प्रदेश होते हैं। वे असंख्य प्रदेश कभी भी परस्पर विभक्त नहीं हो सकते। इसका तात्पर्य हुआ कि जीवास्तिकाय का अंश रूप जो जीव है, वह संख्यात्मक दृष्टि से अनन्त है उन प्रत्येक जीवों के पृथक्-पृथक् असंख्य प्रदेश हैं। जो कभी विभक्त नहीं हो सकते।
यद्यपि भगवती में ही अन्यत्र जीव के लिए भी जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्तरकालीन साहित्य में जीवास्तिकाय का प्रयोग एक जीव के लिए ही होता रहा है।'
अनुयोगद्वार चूर्णि में जीवास्तिकाय में काय शब्द को प्रदेशों के समूह अथवा जीवों के समूह का वाचक माना है। यहां जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग एक जीव एवं सर्वजीवों के समूह के लिए हुआ है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/12 5 - 127 2. वही, 2/128
वही 25/244 4. पंचास्तिकाय, गाथा 4 5. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. 29, कायस्तु समूह: प्रदेशानां जीवानां वा उभयथाप्यविरुन्द्रं इत्यतो जीवास्तिकायः ।
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